आयुर्वेदिक धूम चिकित्सा
आयुर्वेद में औषधियों के धूम्र से कई प्रकार के रोगों को दूर करने का विधान है। यहाँ तक की स्वस्थ व्यक्ति को भी अपने स्वास्थ्य रक्षण व संवधर््न के लिए प्रतिदिन औषधीय द्रव्यों से निर्मित धूम्र का सेवन करना चाहिए।
धूमपान से ठीक होने वाले विभिन्न रोगों का वर्णन ‘च.सं.सू. मात्राशितीया.’ के सूत्र सं. 20-55 में पूरा प्रकरण चला है, जिसमें धूमपान का समय, लाभ, योग, प्रकार, अतिमात्रा में हानि, धूमपान के लिए योग्य-अयोग्य व्यक्ति आदि का विस्तृत वर्णन है।
धूमपान करने से सिर का भारीपन, शिरदर्द, पीनस (sinus), आधाशीशी, कर्णशूल, नेत्रशूल, खाँसी, हिचकी, दमा, गला-घुटना, दाँतों की दुर्बलता, कान-नाम व आँख से दोष जन्य पानी बहना, नाक से दुर्गन्ध, दन्त शूल, अरुचि, हनुग्रह (जबड़े का बैठ जाना तथा कम खुलना), मन्या-स्तम्भ (Torticollis) जिसमें गर्दन टेढ़ी हो जाती है, कण्डू (खुजली), कृमि, चेहरे का पीला पड़ना, मुख से कपफ निकलना, स्वरभेद (गला-बैठना), गलशुण्डिका (Tonsillitis), उपजिह्निका (जिह्ना के पास एक गाँठ), शिर के बाल झड़ना, पीला पड़ना तथा गिरना, छींक आना, अतितन्द्रा, जड़ता, अतिनिद्रा आदि रोग शान्त होते हैं तथा बाल, कपाल और श्रोत्र-त्वचा-चक्षु-जिह्ना-घ्राण तथा कण्ठ-स्वर का बल बढ़ जाता है। जत्रु (गले के नीचे गोल हड्डी) के ऊपरी भाग में होने वाले सभी रोग अर्थात् विशेषकर शिर में होने वाले वात-कफ जन्य रोग अधिक प्रबल नहीं होते।
7. अर्श/बवासीर (Piles)-
अर्क मूल, शमी पत्र, तुमुरू, वायविडंग, देवदारू, अक्षत (चावल), बड़ी कटेरी, अश्वगन्धा, पिप्पली, तुलसीपत्र, घी आदि औषधियों से धूपन करने से अर्श ठीक होता है। -(चं.सं.चि.स्थानम्-14.48-51)
अश्वगंधोथ निर्गुंडी
बृहतीपिप्पलीफलम्।
धूपोयं स्पर्शमात्रेणह्यर्शसांशमनेह्यलम्।।
-(बृ.नि.रत्न. विषमज्वर. पृ. 1706)
(क) अश्वगंधा, निर्गुंडी, कटेरी, पिप्पली, इनकी धूनी बवासीर में हितकारी है।
(ख) अर्क मूल तथा घी की धूप गुदा में देने से हितकारी होती है।
रालचूर्णस्यतैलेनसार्षपेण युतस्य
च।
धूपदानेनयुक्त्यार्शोरक्तस्त्रावोनिवर्तते।। -(बृ.नि.रत्न.
विषमज्वर. पृ. 1711)
सार (राल) का चूर्ण तथा सरसों एकत्र कर धूनी दें तो बवासीर और रूधिर का स्त्राव बंद होता है।
रक्तौघशांतयेदेयंगुदेकर्पूरधूपनम्।। -(बृ.नि.रत्न. विषमज्वर. पृ. 1711)
यदि बवासीर वाले की गुदा से रुधिर अधिक निकलता हो, तो कपूर की धूनी देने से रूधिर गिरना बंद होता है।
यवास्सिद्धार्थकाश्चैव भल्लातकमथो
वसा।
धूपनं चन्दनं कुष्ठं शिशपासार एव च।।
गवां शकृच्च वाराहं
पत्रे वारिशशिग्रजे।
घृतमिश्रं प्रंशसन्ति श्रेष्ठं धूपनमर्शसाम्।।
-(भेल संहिता. 84.85, पृ. 411)
यव, सरसों, भिलावा फल, वसा, चन्दन, कुठ शिशम की लकड़ी, गोबर, तथा राल धूप के साथ रीठा एवं सहजन के पत्ते के साथ घी मिलाकर धूपन करना अर्श-नाशार्थ (बवासीर) श्रेष्ठ फलप्रद कहा गया है।
8. हिक्का/हिचकी (Hiccup)-
(क) हल्दी, जौ, एरण्ड मूल, पीपर, लाख, मैनसिल, देवदारू, हरताल, जटामांसी, मधुमक्खी का छत्ता (मोम), राल, पद्मकाठ, गुग्गुल, अगर, सलई (गोंद) आदि औषधियों का धूम्र लेने से ‘हिक्का’ रोग ठीक होता है। -(चं.सं.चि. स्थानम्-17.77-80)
(ख) राल वा मैनसिल का धूम देने से हिक्का नष्ट होता है। -(सु.सं.उ.तंत्रा 50.19)
शिलामूलस्य पानं वा
नलिकायंत्रयोगतः।
नेपाल्या गोविषाणाद्धा कुष्ठसर्जरसस्य
वा।।
धूमं कुशस्य वा साज्यं पिबेद्धिक्कोपशांतये।। -(बृ.नि.रत्न.
हिक्काकर्माविपाकः पृ. 263-64)
शिलाजीत और मूली अथवा कस्तूरी और बबूल अथवा कूठ और राल अथवा दर्भ को घृत-योग करके उसको अंगारे पर रख के धूम करें, तो हिचकी का नाश करता है।
माषचूर्णभवो धूमो हिक्कां हन्ति न संशय। -(भैषज्यरत्नावली. 8. पृ. 458)
माष (उड़द) चूर्ण का धूम ग्रहण करने से हिक्का (हिचकी) मिट जाती है।
9. क्षयज कास (T.B, Cough)-
महर्षि चरक क्षयरो की चिकित्सा के प्रकरण में कहते हैं-
यया प्रयुक्ता चेष्ट्या राजयक्ष्मा पुरा
जितः।
तां वेदविहितामितिष्टमारोग्यार्थी प्रयोजयेत्।। -(चं.सं.चि.
स्थानम्-8.122)
प्राचीनकाल में जिन यज्ञों के प्रयोग से राजयक्ष्मा को जीता जाता था, आरोग्य चाहने वाले मनुष्य को चाहिए कि उन वेदविहित यज्ञों का अनुष्ठान करे।
क्षयज कास मेदाकाष्ठ, महामेदा काष्ठ, मुलेठी, बरियार (बला), गंगेरन (नागबला) तथा घृत के धूम्र से ठीक होता है। -(चं.सं.चि. स्थानम्-18.144-148)
(क) मैनसिल, हरताल, मुलेठी, जटामांसी, नागरमोथा, हिंगोट के फल आदि औषधियों का धूम लेने से कास रोग ठीक होता है।
(ख) मुलेठी, गुंजा, मैनसिल, काली मिर्च, पीपर, मुनक्का, छोटी इलायची, तुलसी की मंजरी आदि औषधियों के धूम से भी कास रोग ठीक होता है।
(ग) भारङ्गी, वचा, हिङ्ग, खाण्ड, घृत के धूपन का प्रयोग लाभप्रद हैं।
(घ) बाँस की छाल, दालचीनी, इलायची, सैन्धव लवण, खाण्ड, घृत के धूप से वात और कफजन्य कास ठीक होता है। -(सु.सं.उ.तंत्र 52.22)
(ङ) नागरमोथा, इङ्गुदी (हिंगोट वृक्ष के पफल या छाल), मुलेठी, जटामांसी, मैनसिल, हरताल, खाण्ड का चूर्ण धूम के लिए प्रयोग करें। -(सु.सं.उ.तंत्र 52.23)
उत्तरावारुणीपत्रां शालितंडुलतालकम्। संपेश्य
गुटिका कार्या बदराण्डप्रमाणका।।
मुखी तंडुलपिष्टेन कर्तव्या
छिद्रसंयुता।
दीप्तांगारे वटीं क्षिप्त्वा मुखमाच्छाद्य
यत्नतः।।
धूममेरंडनालेन पिबेत् भुक्तातरं शनैः।
तांबूलपूरितमुखं
पथ्यं क्षीरोदनं हितम्।।
तत्क्ष्णान्नाशयेत्कासं सिद्धयोग उदाहृतः।।
-(बृ.नि.रत्न. कासकर्मविपाकः पृ. 231, 232)
इन्द्रायण पत्र, शाली धान के चावल और हरताल, इनको एकत्र पीस करके बेर की गुठली के बराबर गोली बनावें और अंगारें पर डाल कर धूनी लेने से खांसी तत्क्षण दूर होती है, यह सिद्ध प्रयोग है। -(चं.सं.चि. स्थानम्-18.65-75)
अर्कमूलशिलैस्तुल्यं ततोऽर्धेन
कटुत्रिकम्।
चूर्णितं वह्निनिक्षिप्तं पिबेत् धूमं तु
योगवित्।।
भक्षयेदथ तांबूलपिबेद्दुग्धमथापि वा।
कासः पंचविधो
याति शांतिमाशु न संशयः।। -(बृ.नि.रत्न. कासकर्मविपाकः पृ.
239)
अर्क मूल और मैनसिल इनसे आधी सोंठ, मरिच (कालीमिर्च), पिप्पली इनके चूर्ण को अग्नि पर डाल के धुँआ ले और दूध पीवें तो पाँच प्रकार की खांसी नष्ट हो, इसमें सन्देह नहीं है।
मनः शिलालिप्तदलं बदर्यातपशोषितम्।
सक्षीर
धूमपानं च महाकासनिबर्हणम्।। -(बृ.नि.रत्न. कासकर्मविपाकः पृ.
239)
बेर के पत्तों में मैनसिल लगा के धूप में रख देें, जब सूख जाये तब इनको अंगारे पर रख के धुंआ लें तो घोर खांसी का नाश होता है।
जातिपत्रं शिलारालैर्योजयेद्गुगुलं
समम्।
अजामूत्रोण पिष्टोऽयं धूमः कासहरः परः।। -(बृ.नि.रत्न.
कासकर्मविपाकः पृ. 239)
जावित्री, मैनसिल, राल और गुग्गुल ये समान भाग लें, सबको कूट-पीसकर अंगारे पर रखके धुंए लेवें तो खांसी नष्ट होती है।
10. कफज प्रतिश्याय/जुकाम (Common Cold)-
मैनसिल, वच, सौंठ, काली मरिच, पिप्पली, वायविडंग, हींग, गुग्गुल, आँवला, हरड़, बहेड़ा आदि औषधियों का ध्ूम्र लेने से ठीक हो जाता है। -(चं.सं.चि. स्थानम्-26.149-152)
11. कफज तिमिर (नेत्र रोग)-
शिग्रुपल्लवनिर्यासः
सुपिष्टस्ताम्रसम्पुटे।
घृतेन धूपितो हन्ति शोधघर्षाश्रुवेदनः।।
-(वंगसेन)
सहजन के पत्तों के रस को ताम्रपात में डालकर तांबे की मूसली से घोटें ओर उसे घी में मिला लें। इनकी धूप देने से आंखों को पीड़ा, अश्रुस्त्राव, किरकिराहट व शोध का नाश होता है।
वायविंडग, अपामार्ग, हिंगोट की छाल एवं खस के धूम से नेत्र रोग ठीक होता है तथा मधु व सहजन बीज से भी ठीक होता है। -(सु.सं.उ.तंत्रा 17.42)
12. शिरोविरेचन-
(क) शिरोगत मल-द्रव्यों का निष्कासन तथा मस्तिष्क के पोषण में हिघ्गोट-छाल के चूर्ण का धूम उपयोगी है। -(सु.सं.उ.तंत्र 26.21)
(ख) वायविडङ्ग आदि औषधियों को अग्नि में डालकर धूम देने से कृमि बाहर निकल कर गिर पड़ते हैं। -(सु.सं.उ.तंत्र 26.29)
13. शिशुनैरोग्य हेतु धूपन-
(क) देवदारु चूर्ण, वचा, हींग, कुष्ठ, कदम्बपुष्प, छोटी इलायची और हरेणुका (निर्गुण्डी) इन्हें चूर्णित कर घृत में मिला के निर्धूम अग्नि पर डालकर उत्पन्न धूम से बच्चे को धूपित करना चाहिए। -(सु.सं.उ.तंत्र 32.6)।
(ख) वचा, राल, कुष्ठ तथा घृत इन्हें मिला के अङ्गारे पर रखकर धूनी देवें। -(सु.सं.उ.तंत्र 35.6)
(ग) श्वेत सरसों, वचा, हींग, कुठ, अक्षत (चावल या जौ), भिलावा, अजमोदा इनके चूर्ण को अङ्गारों पर डालकर धूनी देवें। -(सु.सं.उ.तंत्र 37.7)
14. श्वासरोग-
(क) मैनसील, देवदारु, हरिद्रा, तेजपत्र, गुग्गुल, लाक्षा, एरण्ड मूल इन सबको समान मात्रा में लेकर धूपन लेना चाहिए। -(सु.सं.उ.तंत्र 51.50)
(ख) घृत, जौ, मोम (मधुमक्खी का छत्ता) और राल इन्हें मिलाकर अथवा इन्हें पृथक्-पृथक् धूम के लिए प्रयोग करें।
(ग) सिहलक, शल्लकी (गोंद), गुग्गुल, पद्माख (पद्मगंधि) इनके चूर्ण का धूम देना चाहिए। -(सु.सं.उ.तंत्र 52.51-52)
15. अन्य कृमि, रोग, दोष आदि में लाभदायक
मूरामूर्धजमेध
ह्वमधूकमलयोद्भवैः।
मरुत्तरूमधूम्मिश्रैः पुरपाणि
जपांसुभिः।।
लोहलामज्जकैलाभिर्धूपश्चित्तश्भ्रमापहः।
ग्रहदोषहरःश्रीदः
सौभाग्यकर उत्तमः।। -(बृ.नि.रत्न.सन्निपात.-पृ. 1395)
मुरा (गंधद्रव्य), नेत्रवाला (सुगंधबाला), महुआ छाल, चंदन, देवदारु शहद, नखद्रव्य, पित्तपापड़ा, अगर, पीला सुगंधबाला और इलायची, इनकी धूनी चित्तभ्रम, सन्निपात और ग्रहदोष-नाशक तथा ऐश्वर्यदायक और कांतिप्रद है।
विशालायाः फलं पक्वं
तप्तलोहोपरिक्षिपेत्।
तद्धूमो दंतलग्नश्चेत् कीटानां पातनः परः।।
-(बृ.नि.रत्न. कृमिरोगाधिकारः पृ. 63)
इन्द्रायण के पके फलों को गर्म तवे पर डाले, इसके धुंए से दांतों में जो कीड़ा होता है, वह तत्काल मर जाता है। यह प्रयोग परमोत्तम है।
गुग्गुलुं समधुघृतं तेन धूपेन
धूपयेत्।
मन्त्रेण तेन हारीत तर्जयेद् ग्रहपीडितम्।। -(हारित.सं.
3.55.26)
गुग्गुल में मधु और घी मिला कर धूप बनाकर ग्रह से पीड़ित रोगी को ताड़ित करना चाहिए।
गुग्गुलं धूपकामार्थं प्रसिद्धं
मंगलप्रदम्।
बाह्याभ्यान्तरदेहस्य शोधनार्थं
प्रकल्पयेत्।।
स्वादुत्वान्मरुतं निहन्ति च कफं निहन्ति
तिक्तात्कषायात्पुन।
पित्तं स्निग्धतया ददाति च बलं वहिं
कटुत्वात्पुन।
तद् युक्त्या वु निहन्ति पाण्डूदरानार्शः
स्तम्भशूलामयांश्च।
वातास्त्रकृमिकुष्ठमेहविषहृन्मेदोऽम्लपित्तोध्र्वजान्।।1।।
-(चिकित्सार्णव. पृ. 331, 332/38)
गुग्गुल धूपन कर्म के लिए प्रसिद्ध है तथा मंगलदायक होता है। वह शरीर के बाह्य तथा आभ्यान्तर शोधन के लिए प्रयोग में आता है। गुग्गुल मधुर रस के कारण वातनाशक होता है, तिक्त रस के कारण कफनाशक तथा कषाय रस के कारण पित्तनाशक होता है। वह स्निग्ध गुण के कारण बलदायक तथा कटु रस के कारण अग्निदीपक होता है। युक्ति पूर्वक प्रयोग करने से वह पाण्डु, उदर रोग, अर्श, स्तम्भ, शूल, वातरक्त, कृमिरोग, कुष्ठरोग, प्रमेह, विषरोग, हृदयरोग, मेदोरोग, अम्लपित्त तथा ऊध्र्वजत्रुगत रोगों का विनाश करता है।
निम्बपत्रवचाहिंगुसर्पनिर्मोकसर्षपैः।
डाकिन्यादिहरो धूपो
भूतोन्मादविनाशनः।। -(चिकित्सार्णव. पृ. 70/373)
नीम की पत्ती, वचा, हींग और सरसों इन्हें समभाग में लेकर धूप देने से दोष और भूतोन्माद नष्ट हो जाता है।
दंशं भ्रमणविधिना वृश्चिकाविषं हृत्
कुठेरपादमुडिका।
पुरधूमपूर्वमर्कछदमिव पिश्वा कृतो लेपः।।
-(चिकित्सार्णव. पृ. 48/907)
तुलसी की जड़ को पीसकर गोली बनाकर बिच्छू के दंश किये हुए स्थान पर कई बार फेरने से विष ऐसे उतरता है, जैसे गुग्गुलु से वृश्चिकदंश को धूमित करके अर्क के पत्रों को पीसकर लेप करने से।
श्रीवासगुग्मुल्वगुरुशालनिर्यासधूपिताः।
कठिनत्वं व्रण यान्ति
नश्यन्त्यास्त्राववेदनाः।। -(भैषज्यरत्नावली. 47.823)
गन्धविरोजा, गुग्गल, अगरु, राल इन चारों द्रव्यों को चूर्ण कर धूपन देने से दूषित व्रण का स्त्राव, वेदना एवं कृमियाँ नष्ट हो जाती हैं। साथ ही जो व्रण दीर्घ काल के कारण कठिन हो जाते हैं, वह भी इस धूपन से नष्ट हो जाते हैं।
आरोग्यकामो दूर्वाभिर्गुरूत्पाते स एव
हि।
सौभाग्येच्छुर्गुग्गुलुना विद्यार्थी पायसेन (च)।। -(अग्निपुराण
215.28)
आरोग्य का इच्छुक और महान् उत्पात से आतङ्कित मनुष्य दूर्वा का, सौभाग्याभिलाषी गुग्गुल का और विद्या के इच्छुक को खीर का हवन करना चाहिये।
जपन्निन्द्रमिति स्नातो वैश्वदेवं तु
सप्तकम्।
छित्त्वा सर्वान्मृत्युपाशा´जीवेद्रोगविवर्जितः।
-(अग्निपुराण 259.27,29)
गूलर की घृतयुक्त समिधओं का हवन करने से मनुष्य समस्त पाशों का छेदन करके रोगहीन जीवन बिताता है।
दूर्वा व्याधिविनाशिनी होमयेत्।। -(अग्निपुराण 81.52)
दूर्वा का हवन व्याधि (बीमारियों) का विनाश करने वाला है।
तनूपाग्ने सदिति दूर्वां हुत्वाऽर्तिवर्जितः।। -(अग्निपुराण 261.15)
भेषजमसीति दध्याज्यैर्होमः
पशूपसर्गनुत्।
त्र्यम्बकं यजामहे होमः सौभाग्यवर्धनः।। -(अग्निपुराण
261.16)
‘तनूपा अग्नेऽसि……’ (यजु.-3.17) इत्यादि मन्त्र द्वारा दूर्वा का हवन करने से मनुष्य का संकट दूर हो जाता है। ‘भेषजमसि..’ (यजु.-3.59) इत्यादि मन्त्र से दधि एवं घृत का हवन किया जाय तो वह पशुओं पर आने वाली महामारी रोगों को दूर करता है। ‘त्र्यम्बकं यजामहे..’ (यजु.-3.60)- इस मन्त्र से किया हुआ हवन सौभाग्य की वृद्धि करने वाला है।
वृक्षाणां यज्ञियानां तु समिधाः प्रथमं
हविः।
आज्यं च व्रीहयश्चैव तथा वै गौरसर्षपाः।।
अक्षतानि
तिलाश्चैव दधिक्षीरे च भार्गव।
दर्भास्तथैव दूर्वाश्च बिल्वानि
कमलानि च।।
शान्तिपुष्टिकराण्याहुद्र्रव्याण्येतानि सर्वशः।।
-(अग्निपुराण 262.22-24)
यज्ञ-सम्बन्धि वृक्षों की समिधाएँ सबसे मुख्य हविष्य हैं। इसके अतिरिक्त घृत, धान्य, श्वेत सर्षप (सरसों), अक्षत, तिल, दुग्ध, कुश, दूर्वा, बिल्व और कमल-ये सभी द्रव्य शान्तिकारक एवं पुष्टिकारक बताये गये हैं।
गायत्र्या हावयेद्वह्न दूर्वां त्रिमधुराप्लुताम्।। -(अग्निपुराण 280.5)
त्रिमधुर (शर्करा, गुड़, मधु) में डुबायी हुई दूर्वा का गायत्री-मन्त्र से हवन करने पर मनुष्य सब रोगों से छूट जाता है।
लक्षं ग्रहादिनाशः स्यादुत्पातं
तिलहोमतः।
दिव्ये लक्षं तदर्धेन व्योमजोत्पातनाशनम्।।
घृतेन
लक्षपातेन उत्पाते भूमिजे हितम्।
घृतगुग्गुलहोमे च
सर्वोत्पातादिमर्दनम्।। -(अग्निपुराण 321.5,6)
तिल के हवन करने से उत्पातों का विनाश होता है। एक लक्ष (लाख) जप-हवन से द्युस्थ उत्पात का, आधे लक्ष जप-हवन से आकाशज उत्पात का तथा घी की एक लाख आहुति देने से भूमिज उत्पात का निवारण और घृत मिश्रित गुग्गुल के हवन से सम्पूर्ण उत्पाद आदि का शमन हो जाता है।
दूर्वाक्षताज्यहोमेन व्याध्योऽथ घृतेन
च।
सहस्रेण तु दुःस्वप्ना विनश्यन्ति न संशयः।। -(अग्निपुराण
321.7,8)
दूर्वा, अक्षत तथा घी की आहुति देने से सारे रोग दूर होते हैं। केवल घी की एक सहस्त्र (1000) आहुति से बुरे स्वप्न नष्ट हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है।
बिनोला, कटेरी, लजालु (लाजवंती), मैनफल, दालचीनी, जटामांसी, वच, हींग और कालीमिर्च ये समान भाग लेकर कूट-पीस के धूनी दें, तो स्कंदग्रहोन्माद, पिशाच, यक्ष, राक्षस और देवताओं के देह में आना, बंद हो जाता है। -(बृ.नि.रत्न. विषमज्वर. पृ. 1453)