यज्ञ-विधि
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने ऋग्वेदादि (भाष्य) भूमिका में वेदों
में यज्ञ विधान का प्रमाण देते हुए लिखा है-
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन।।1(ऋग्वेद-8.44.1, यजुर्वेद- 3.1 )
समिधा से अग्नि को जलाओ और उसमें घी तथा हविर्द्रव्यों की
आहुति दो।
इस पध्दति में समिधा, घृत एवं हव्य- तीनों को सम्मिलित कर
उसकी विधि बतलाई गई है।
परन्तु ब्राह्मण और कल्पसूत्रों में इनका विस्तार से वर्णन किया
गया है। जैन व बौध्दाें से पूर्व का यह युग कर्मकाण्ड-प्रधान युग था।
अतः उस समय विस्तार से इस पर चिन्तन एवं मनन हुआ है। इसी
कारण यज्ञों के भी नाना प्रकार प्रादुर्भूत हुए तथा उनके विधिविधान भी
पृथक्-पृथक् निर्धारित किये गये हैं। यथा- ‘श्रौतयज्ञाें के तीन भेद-पाक
सोम एवं हविर्यज्ञ का विभाग, प्रक्रिया की दृष्टि से प्रकृति, विकृति और
प्रकृतिविकृति यागों के रूप में किया गया है।
नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य, जितने भी श्रौतकर्म है, वे आह्वनीय,
दक्षिणाग्नि एवं गार्हपत्य संज्ञक तीन अग्नियों में किये जाते हैं। अतः
श्रौतकर्म आरंभ करने से पूर्व इन अग्नियों का आधान करना आवश्यक
होता है। यह अग्न्याधन कहलाता है। इसे ही आधान नाम से भी कहा
जाता है। आधानकर्म तीन प्रकार का होता है- होमपूर्व, इष्टिपूर्व और
सोमपूर्व आधान। सभी अग्नियों के आधान के अनन्तर तीन पवमान
इष्टियां होती हैं, इन्हें तनू हवियाँ भी कहते हैं।
पवमानेष्टियों के बाद ही अग्निहोत्र का आरम्भ होता है। जिस
सपत्नीक यजमान ने अग्नियांे का आधान कर लिया है, उस आहिताग्नि
पदवाच्य दम्पती को समस्त श्रौतकर्मों के करने का अधिकार प्राप्त हो
जाता है।
समस्त हविर्यज्ञों की प्रकृति-दर्शपौर्णमास है इसलिये इसी की विधि
का मात्र नामोल्लेख क्रमपूर्वक है- संकल्प, पंचभूसंस्कार, अग्न्युध्दरण,
व्रतोपायन, ब्रह्मवरण, प्रणीताप्रणयन, परिस्तरण, पात्रासादन, हविग्रहण,
पवित्रकरण, हविप्रा ेक्षण, फलीकरण, कपाला ेपधानम, हविप ेषणम,
आज्यादानम, वेदकरणम्, पुरोडाशपिण्डकरणम्, अधिश्रयणम, श्रपणम्,
अन्वाहार्य पचनम, व ेदिकरणम, पंचप्रेषा, स्रुक्-आज्यहविस्थापनम,
होतृवरणम्, सामिध् ेन्यन ुवचनम्, पूर्वाचारः, उत्तराधारः, प्रवराश्रावणम्,
होतृवरणम्, प्रयाजाः, आज्यभागो, प्रधानयागः, स्विष्टकृतयागः, भागहरण्
म्, भागप्राशनम्, अन्वाहार्यदक्षिणा, अनुयाजाः, सुचोव्र्यूहनम्, सूत्तफवाकः,
संवादः, शंयुवकः, परिधिहाेमः, संस्त्रवहोम, पत्नीसंयाजः, दक्षिणाग्निहोम,
पिष्टलेपहोम, वेदयोक्त्राविमोकः, समष्टियजुहामः बर्हिहोम प्रणीतानिनयनम्,
पूर्णपात्रनिनयनम्, विष्णुक्रमाः, गार्हपत्योपस्थानम्, व्रतविसर्गः, भागप्राशनम्
तथा कर्मापवर्गः।
समस्त सोमयागों की प्रकृति-अग्निष्टोम है। अग्निष्टोम के ढांचे
में स्वल्प परिवर्तन करके अन्यान्य सोमयाग निष्पन्न होते हैं। राजसूय
एवं अश्वमेध् आदि भी विशेष प्रकार की सोमयाग हैं। सोम के रस से
सम्पन्न होने वाले सोमयाग के लिये विशाल देवयजनी (यज्ञशाला) का
निर्माण किया जाता है। विधि का शुभारंभ सामगान तथा ऋचाओं के पाठ
से होता है। उसके बाद उखासम्भरणदीक्षा, ऋत्विग्वरण्, गार्हमत्यचिति,
उख्याग्निस्थापन, प्रायणीयेष्टि- साेमक्रय, आतिथ्येष्टि, प्रवग्र्य, उपसद,
सुब्रह्मण्याह्वान, अग्निषोमीयविधि, वसतीवरी, प्रातः सवन (सोमाभिषव,
सवनीयविधि, ग्रहप्रचार) माध्यन्दिन सवन, तृतीय सवन, अवमृथेष्टि तथा
उदवसानीयेष्टि आदि विधियां की जाती हैं।
धर्म एवं गृह्सूत्रोत्त स्मार्त यज्ञ गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त
संस्कारों से किये जाते हैं। शालाकर्म और पंचमहायज्ञादि भी स्मार्त
पाकयज्ञों में समाहित दिखाई देते हैं।1(श्रौत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय, युध्ष्ठििर मीमांसक, पृष्ठ- 10-95 )
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रणीत “ग्रंथ संस्कार विधि” में यज्ञ की सरल
विधि लिखी र्गइ है, उसका विवरण क्रमशः- ऋत्विग्वरण्, स ंकल्प, व्रतग्रहण,
आचमन अडग्ंस्पर्श ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्र पाठ, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण,
अग्न्याधान, समिदाधान, घृताहुति जलप्रसेचन,( 4 आघारावाज्याहुति 12 दैनिक आहुतियां,
पूर्णाहुति प्रकरण (4 आघारावाज्य व्याहृत्याहुति स्विष्टकृदाहुति, मौन प्राजापत्याहुति 4
पवमान आहुतियां, 8 आज्य आहुतियां तथा 3 पूर्णाहुतिः) हैं। उन्हांेने प्रत्येक गृहस्थियों
के लिये दैनिक अग्निहोत्र की विधि में 16-16 आहुतियां प्रातः सायं दोनों काल में देना
अनिवार्य लिखा है।1(संस्कार विधि, स्वामी दयानन्द सरस्वती)
अग्निहोत्र- विधि
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के जिन ग्रन्थों में अग्निहोत्र का निरूपण
मिलता है, वे रचनाकाल की दृष्टि से क्रमशः ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
(संवत् 1933), पंचमहायज्ञविधि (संवत् 1934), सत्यार्थप्रकाश
(संवत् 1939) तथा संस्कारविधि (संवत् 1940) हैं। इनमें से प्रथम
तीन ग्रन्थों के अग्निहोत्र -प्रकरण में अग्न्याधान, समिधाधान, जलसेचन
आदि के मन्त्रों का कोई उल्लेख नहीं है। यज्ञकुण्ड में अग्निप्रदीपन के
पश्चात् होम के केवल ये मन्त्र लिखे हैं- प्रातःकाल के सूर्यो ज्योतिर्
आदि चार, सायंकाल के अग्निर् ज्येातिर् आदि चार, उभयकाल के ओं
भूरग्नये प्राणाय स्वाहा आदि चार, ओमापो ज्योती रसो एक और
अन्त में ओं सर्वं वै आदि पूर्णाहुति एक। सत्यार्थप्रकाश तृतीय समुल्लास
में केवल ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा आदि चार मन्त्रों से होम करना
लिखा है तथा यह निर्देश दिया है कि जिसे अधिक आहुति देना हो तो
विश्वानि देव आदि मन्त्र से और गायत्री मन्त्र से आहुति देवें।
आजकल जिस अग्निहोत्र का प्रचलन है, वह संस्कारविधि के
सामान्य प्रकरण और गृहस्थाश्रम- प्रकरण का है। संस्कारविधि काल की
दृष्टि से उक्त सब में अन्तिम ग्रन्थ होने के कारण, उसमें युक्तियुक्त
विस्तृत विधि-विधान होने के कारण तथा स्वयं स्वामी दयानंद सरस्वती
जी को अभिमत होने के कारण उसी में प्रतिपादित अग्निहोत्र ग्राह्य है।
हमने भी प्रस्तुत पुस्तक में संस्कारविधि का ही अनुसरण किया है।