यज्ञों के क्रम
संहिता तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों में कुछ यज्ञों का क्रम बतलाते हुए उनका विधन लिखा गया है, जो कहीं-कहीं बहुत संक्षिप्त और कहीं-कहीं बहुत विस्तार से उपलब्ध् हैं। यथा-
अथातो यज्ञक्रमाः।
अग्न्याधेयमग्न्याधेयात्पूर्र्णाहुतिः
पूर्णाहुतेरग्निहोत्राम्
अग्निहोत्राद्दर्शपूर्णमासौ दर्शपूर्णमासाभ्यामाग्रहायण
मा
ग्रहायणाच्चातुर्मास्यानि चातुर्मासेभ्यः पशुबन्ध्ः
पशुबन्ध्
।दग्निष्टोमः अग्निष्टोमाद्राजसूयो राजसूयाद्वा जपेयः
वाजपेयादश्वमेध्ः
अश्वमेधात्पुरुषमेध्ः पुरुषमेधात सर्वमेध्ः
सर्वमेधा द्दक्षिणावन्तो
दक्षिणावद्भ्यो दक्षिणा अदक्षिणाः
सहस्रदक्षिणे प्रत्यतिष्ठंस्ते वा एते
यज्ञक्रमाः स य एवमेतान्
यज्ञक्रमान् वेद यज्ञेन स आत्मा स लोको
भूत्वा देवानेष्यतीति
ब्राह्मणम्।। ( गोपथ ब्राह्मण- 1.5.7
)
अब यहाँ यज्ञक्रम कहे जाते हैं-
अग्न्याधन से पूर्णाहुति, पूर्णाहुति से अग्निहोत्रा, अग्निहोत्रा से दर्शपूर्णमास,
दर्शपूर्णमास से आग्रहायण, आग्रहायण से चातुर्मास्य, चातुर्मास से पशुबन्ध्, पशुबन्ध्
से अग्निष्टोम, अग्निष्टोम से राजसूय, राजसूय से वाजपेय, वाजपेय से अश्वमेध्, अश्वमेध्
से पुरुषमेध्, पुरुषमेध् से सर्वमेध्, सर्वमेध् से दक्षिणावाले, बहुत दक्षिणावाले तथा
असंख्य दक्षिणावाले यज्ञों को जानता है और अनुष्ठित करता है, वह यज्ञों के साथ एकात्म
होकर दिव्यगुणों को पाता है। यथा-
अग्न्याधन
गोपथ के अनुसार अग्नीनाधय पूर्णाहुत्या यजेत्- पूर्णाहुति पर्यन्त
यज्ञ करना,
अग्न्याधन है। ( गोपथ ब्राह्मण- 1.5.8
)
अथातो यज्ञक्रमाः।
अग्न्याधेयमग्न्याधेयात्पूर्र्णाहुतिः
पूर्णाहुतेरग्निहोत्राम्
अग्निहोत्राद्दर्शपूर्णमासौ दर्शपूर्णमासाभ्यामाग्रहायण
मा
ग्रहायणाच्चातुर्मास्यानि चातुर्मासेभ्यः पशुबन्ध्ः
पशुबन्ध्
।दग्निष्टोमः अग्निष्टोमाद्राजसूयो राजसूयाद्वा जपेयः
वाजपेयादश्वमेध्ः
अश्वमेधात्पुरुषमेध्ः पुरुषमेधात सर्वमेध्ः
सर्वमेधा द्दक्षिणावन्तो
दक्षिणावद्भ्यो दक्षिणा अदक्षिणाः
सहस्रदक्षिणे प्रत्यतिष्ठंस्ते वा एते
यज्ञक्रमाः स य एवमेतान्
यज्ञक्रमान् वेद यज्ञेन स आत्मा स लोको
भूत्वा देवानेष्यतीति
ब्राह्मणम्।। ( गोपथ ब्राह्मण- 1.5.7
)
अब यहाँ यज्ञक्रम कहे जाते हैं-
अग्न्याधन से पूर्णाहुति, पूर्णाहुति से अग्निहोत्रा, अग्निहोत्रा से दर्शपूर्णमास,
दर्शपूर्णमास से आग्रहायण, आग्रहायण से चातुर्मास्य, चातुर्मास से पशुबन्ध्, पशुबन्ध्
से अग्निष्टोम, अग्निष्टोम से राजसूय, राजसूय से वाजपेय, वाजपेय से अश्वमेध्, अश्वमेध्
से पुरुषमेध्, पुरुषमेध् से सर्वमेध्, सर्वमेध् से दक्षिणावाले, बहुत दक्षिणावाले तथा
असंख्य दक्षिणावाले यज्ञों को जानता है और अनुष्ठित करता है, वह यज्ञों के साथ एकात्म
होकर दिव्यगुणों को पाता है। यथा-
अन्य विद्वान् के अनुसार अग्न्याधन का शाब्दिक अर्थ है ‘अग्नि
का आधन’। सात
हविर्यज्ञों में अग्न्याधन नामक हविर्यज्ञ का सर्वप्रथम
स्थान है। यज्ञ में सम्पूर्ण
कार्य अग्नि के माध्यम से होता है। संभवतः
इसीलिये अग्न्याधन क्रिया का प्राथम्य है।
अग्न्याधन का प्रधन देवता
अग्नि है। गार्हपत्य, आहवनीय तथा दक्षिणाग्नि के
प्रतिष्ठित हो जाने
पर अध्वर्यु सपफाई का कार्य करता है। तदनन्तर उदुम्बर और शमी
की
तीन-तीन समिधओं में से शमी को आज्य से युत्तफ कर स्वाहाकार
सहित रखकर
पूर्णाहुति दी जाती है। होम आज्य से ही किया जाता है,
उसके पश्चात् आहिताग्नियों का
अनुष्ठान किया जाता है। ( कृष्ण यजुर्वेद एक
अध्ययन, डॉ. वीरेन्द्र कुमार मिश्र, पृष्ठ- 28 )
अग्निहोत्रा
यज्ञों में अग्निहोत्रा महत्वपूर्ण माना गया है, इसलिये उसका विशद वर्णन मिलता है।
यथा-
अग्नये चैव सायं ;जुहोतिद्ध, प्रजापतये
चेत्यब्रवीत्।
सूर्याय च प्रातः प्रजापतये
चेति।। ( काठक संहिता- 6.6, शतपथ ब्राह्मण-
2.2.4.17 )
अग्निहोत्रा में सायंकाल अग्नये ;अग्नि के लियेद्ध एवं प्रजापतये ;प्रजापति के लियेद्ध
तथा प्रातः काल सूर्याय ;सूर्य के लियेद्ध और प्रजापतये ;प्रजापति के लियेद्ध बोलते हुए
आहुति दी जाती है।
इसी प्रकार गोभिलगृह्यसूत्रा में 1.3.9,10 में नित्य सायं को
अग्नि व प्रजापति तथा प्रातः सूर्य व प्रजापति के लिए हवन विधन है।
अग्निहोत्रो स्वाहाकारः- अग्निहोत्रा में स्वाहा बोला जाता है। ( मैत्रायणी संहिता- 1.8.1 )
एतद्वै जरामर्यं सत्त्रां यदग्निहोत्रां जरया ह्येवास्मान्मुच्यन्ते मृत्युना वा। ( तैत्तिरीय आरण्यक- 10.64, शतपथ ब्राह्मण- 12.4.1.1 )
यह अग्निहोत्रा जरामर्य सत्रा है क्योंकि यह अत्यध्कि अशत्तफता अथवा मृत्यु के बाद ही छोड़ा जा सकता है।
तस्मादपत्नीको{प्यग्निहोत्रामाहरेत्।। (
ऐतरेय ब्राह्मण- 7.9 )
पत्नी के बिना
भी अकेले अग्निहोत्रा करे।
अग्निहोत्रो{श्वमेध्स्याप्तिः- अग्निहोत्रा करने पर अश्वमेध् का पफल मिलता है ( शतपथ ब्राह्मण- 3.1.8.2 )।
मुखं वा एतद्यज्ञानां यदग्निहोत्राम्।।
(शतपथ ब्राह्मण- 14.3.1.29 )
यह
अग्निहोत्रा यज्ञों का मुख है।
सर्वस्मात्पाप्मनो निर्मुच्यते स य एवं विद्वानग्निहोत्रां
जुहोति।। ( जैमिनीय ब्राह्मण- 1.9
)
जो विद्वान् अग्निहोत्रा करता है वह
सब पापों से छूट जाता है।
दर्शपूर्णमास(अमावस्या व पूर्णिमा विशेष यज्ञ)
सुवर्गाय हि वै लोकाय दर्शपूर्णमासौ इज्यते।। ( तैत्तिरीय संहिता- 2.2.5
)
दर्शपूर्णमास ;अमावस्या व पूर्णिमा
विशेष यज्ञद्ध यज्ञ स्वर्गलोक की प्राप्ति अर्थात् स्थान विशेष को पूर्ण सुखमय बनाने के
लिये अमावस्या और पूर्णिमा के दिन विशेष यज्ञ किया जाता है।
दर्शपूर्णमासाविष्टीनां प्रकृतिः।। (
आपस्तम्ब श्रौतसूत्रा- 24.3.23
)
दर्शपूर्णमास सभी इष्टियों की
प्रकृति है।
आग्रहायण (नवसस्येष्टिद्ध)
उत्तरायण व दक्षिणायन के आरंभ में नवीन अन्नो से जो यज्ञ होते हैं, वे आग्रहायण या नवसस्येष्टि कहलाते हैं। ( वैदिक सम्पत्ति, पं. रघुनन्दन शर्मा, पृष्ठ- 280 )
चातुर्मास्य(भैषज्य यज्ञ)
पफाल्गुन्यां पौर्णमास्यां चातुर्मास्यानि प्रयु×जीत।
मुखं
वा एतत् सर्वंत्सरस्य यत् पफाल्गुनि पौर्णमासी।। ( गोपथ ब्राह्मण- 3.1.11
)
पफाल्गुनी, आषाढ़ी और कार्तिकी
पौर्णमासियों को जो यज्ञ किये जाते हैं, वे चातुर्मास्य कहलाते हैं।
भैषज्य यज्ञा वा एते यच्चातुर्मास्यानि।
ऋतुसंध्षिु व्यार्ध्जिायते तस्मादृतुसंध्षिु
प्रयुज्यन्ते। ( कौषीतकी ब्राह्मण- 5.1, गोपथ
ब्राह्मण- 2.1.9 )
ये चातुर्मास्य भैषज्य यज्ञ हैं।
चूंकि ऋतुओं के सन्ध्किाल में व्याध्यिां उत्पन्न होती हैं या बढ़ जाती हैं, इसलिये उन
अनागत रोगों अथवा प्रदूषणों के निवारणार्थ ये यज्ञ ऋतुओं के सन्ध्किाल में किये जाते
हैं।
अत्राहि चत्वारि पर्वाणि,
वैश्वदेवं वरुणप्रघासाः साकमेध
शुनासीरीयं चेति।। ( कात्यायन श्रौतसूत्रा
की भूमिका, पृष्ठ- 36 )
इसमें चार पर्व
होते हैं- वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेध् और शुनासीरीय पर्व।
पशुबन्ध्नि(रूढ़ पशुबन्ध्द्ध)
पशुबन्ध् यज्ञ पशुओं की प्राप्ति के लिये किया जाता है। ( ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रतिबिम्बित समाज एवं संस्कृति, डॉ.वीरेन्द्रकुमार मिश्र, पृ.- 257 )
अग्निष्टोम
एष वै ज्येष्ठो यज्ञानां यदग्निष्टोमः (तस्मात् उ ह वसन्ते-वसन्तेद्ध)
ज्योतिष्टोमेन एव अग्निष्टोमेन यजेत।। (
ताण्ड्य ब्राह्मण- 6.3.8, शतपथ ब्राह्मण- 10.1.2.9
)
जो प्रतिवर्ष वसन्त में वार्षिक यज्ञ
होता है उसे ‘अग्निष्टोम’ कहते हैं। उसके अग्निष्टोम, उक्थ्य, वाजपेय, अतिरात्रा आदि
अनेक प्रकार हैं। यह सब यज्ञों में श्रेष्ठ है।
राजसूय
राज्ञ एव सूर्यं कर्म। राजा वै राजसूयेन इष्ट्वा भवति।। ( शतपथ ब्राह्मण- 13.2.2.1
)
राजगद्दी के समय राजा द्वारा किया
जाने वाला यज्ञ राजसूय यज्ञ है।
वाजपेय
यद्यपि यह अग्निष्टोम यज्ञ के अन्तर्गत ही माना गया है तथापि वाजपेयेन स्वाराज्यकामो यजेत्– स्वाराज्य ;स्वर्ग या स्वशासनद्ध की कामना वाले वाजपेय यज्ञ करें ऐसा भी कहा गया है। (तैत्तिरीय ब्राह्मण- 1.3.2 )
अश्वमेध्
सर्वा वै देवता अश्वमेधे अन्वायत्ताः,
तस्मादश्वमेध्याजी
सर्व दिशो अभियजन्ति। श्रीवै राष्ट, राष्ट
वै अश्वमेध्ः,
तस्माद्राष्ट्री-अश्वमेधेन
यजेत्।। ( शतपथ ब्राह्मण- 13.1.2.9
)
सब देवता अश्वमेध् मे आते हैं।
अश्वमेध् करने वाला सब दिशाओं ऐश्वर्य को जीतने वाला होता है। एैश्वर्य ही राज्य है,
राष्ट्र ही अश्वमेध् है इसलिये सम्राट अश्वमेध् यज्ञ करते हैं।
पितृयज्ञ (पुत्राकामेष्टिद्ध)
अथ यत् प्रजा इच्छेत्, यत् पितृभ्यो निपृणाति।। ( शतपथ ब्राह्मण- 6.7.3.7
)
जो पुत्र चाहता है और जो पितरो को
तृप्त करता है उस पुत्रार्थी को पितृयज्ञ आवश्यक है, यही ‘पुत्राकामेष्टि’ है।
मृत
शरीर को जलाना अन्त्येष्टि है, इसी को पुरुषमेध्, नरमेध्, नरयाग, पुरुषयाग भी कहते
हैं। ( संस्कारविध्,ि स्वामी दयानन्द सरस्वती, पृष्ठ- 369
)
गोपथ ब्राह्मण में वर्णित उत्त यज्ञक्रमों के
अतिरित्तफ अन्य अनेकों श्रौत तथा स्मार्त यज्ञों का उल्लेख प्राचीन साहित्य में है,
किन्तु उनका क्रमबद्ध वर्णन अनुपलब्ध् है। वैदिक कोश में कतिपय यज्ञों का विवरण दिया
गया है।
वृष्टियज्ञ
सृष्टि के जीवन का आधर ही जल है। जगत् में जल की प्राप्ति के अनेक स्रोत है। जिनमें सबसे प्रमुख वर्षा है। वर्षा हमें पर्जन्य से प्राप्त होती है। किन्तु वर्षा प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत ही हमें प्राप्त होती है या कोई अन्य मार्ग या उपाय भी है। इस का उत्तर हमें वेद देता है-
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु। (
यजुर्वेद- 22.22)
अर्थात् जब-जब हम
चाहें तब-तब मेघ बरसें और वर्षा हो। वेदों में ऐसे अनेक मन्त्रा आएं हैं, जिससे यह
स्पष्ट हो जाता है कि हम अपनी इच्छानुसार भी वर्षा करा सकते हैं। किन्तु मात्रा इच्छा
से ही नहीं इसके लिए हमें कुछ प्रयत्न भी करना होगा। कुछ प्रयोग भी करने होंगे और वह
प्रयोग है- यज्ञ। यज्ञ द्वारा हम वर्षा करा सकते हैं अर्थात् यज्ञ में
ऐसी शक्ति है जो बादलों का निर्माण कराकर वर्षा करा सकती है। इसीलिए अथर्ववेद में कहा
गया है-
तन्तता यज्ञं बहुधा विसृष्टा। ( अथर्ववेद- 4.15.16
)
अर्थात् जब वर्षा कराने की आवश्यकता
हो तो विविध् प्रकार के यज्ञ करने चाहिए।
एतान्यग्ने नवतिर्नव त्वे य
आहुतान्यध्रिथा सहस्रा।
तेभिर्वध्रस्व तन्वः शूर पूर्वीर्दिवो
नो वृष्टिमिषितो रिरीहि।। ( ट्टग्वेद- 10.98.10
)
अग्नि में 99 सहस्र घृत सहित चरू की
आहुति देने से अग्नि अनेक ज्वालाओं से बढ़ती है। वह तीव्र होकर आकाश से वृष्टि प्राप्त
कराती है। ( अध्यात्म सुध- 4, स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती, पृष्ठ- 289
)
ऋग्वेद के सूत्तगत मन्त्रों के अर्थों पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वेद के
अनुसार वृष्टियज्ञ द्वारा वर्षा करायी जा सकती है। अनावृष्टिकाल में सबका कल्याण वर्षा
द्वारा ही संभव है। अतः ऐसे समय राजा को वृष्टियज्ञों का आयोजन करना
चाहिये। ( आर्ष ज्योति, डॉ. रामनाथ वेदालंकार, पृष्ठ- 237 में
ट्टग्वेद- 10.98 पर विचार )
अथर्ववेद में
पर्जन्य(बादलों) को हमारा पिता कहा गया है-
माता भूमिः पुत्रोsहं पृथिव्याः
पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु। ( अथर्ववेद- 12.1.12
)
अर्थात् भूमि हमारी माता है और हम
पृथ्वी के पुत्रा और वर्षा द्वारा सब कुछ उत्पन्न करने वाल पर्जन्य हमारा पिता है।
यजुर्वेद में कामना की गई है कि-
शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्यो
अभिवर्षतु। ( यजुर्वेद- 36.10
)
अर्थात् दिव्य बादल गरज व बिजली के
साथ हमारे लिए कल्याण प्रद वर्षा सब ओर से करें। यास्कीय निरुक्त निर्वचनपूर्वक पर्जन्य
महत्व का दिग्दर्शन कराया गया है-
पर्जन्यः पर उत्कृष्टो जनयिता औषधि वनास्प्तिनाम। ( यास्क निरुक्त- 10.12
)
अर्थात् औषधि
वनस्पतियों का उत्पन्नकर्ता पर्जन्य ही उत्कृष्ट है। पर्जन्य का जन्म ही पर+जन्य
अर्थात् दूसरों के लिए हैं।
निरुक्तकार यज्ञ की व्याख्या करते हुए कहते
है-
येन सदनुष्ठानेन इन्द्रप्रभृतयो देवाः सुप्रसन्नाः सुवृष्टिं
कुर्युस्तद् यज्ञपदाभिधयेम। ( यज्ञ मीमांसा
)
अर्थात् जिस उत्तम अनुष्ठान से
सूर्यादि देवतागण अनुकूल वृष्टि करें, उसे यज्ञ कहते हैं।
ऋग्वेद के सोमाहुतिर्भार्गव ऋषि तथा अग्नि देवता वाले मन्त्रा में कामना की गई
है-
स नो वृष्टिं दिवस्परि स नो वाजमनर्वाणम्। स नः
सहस्रिणीरिषः।। ( ऋग्वेद- 2.6.5
)
अर्थात् यह यज्ञ(अग्नि) हम लोगों के
लिए सूर्यप्रकाश तथा मेघमण्डल से वर्षा कराता है। पर यज्ञ कैसे करें?
घृतं
पवस्व धरया यज्ञेषु देववीतमः। अस्मभ्यं वृष्टिमा पव।। ( ऋग्वेद-
9.49.3 )
वर्षा के लिए घृत की धरा
टपकाएं।
यजुर्वेद के 1/16 मन्त्र में यज्ञ को वर्षवृद्धम कहा गया
है। अर्थात् वर्षा को बढ़ाने वाला कहा गया है।
सामवेद में भी यज्ञ को वृष्टि का साध्न
माना है-
अयन्त इन्द्रो सोमो निपूतो अधि बर्हिषि एहमस्य द्रवा
पिब। ( सामवेद- 159 )
अर्थात् जब
मनुष्य वृष्टि के हेतु इन्द्रयाग के लिए सोम को तैयार करें। तब परमेश्वर की स्तुति करके
अग्नि में सोम का हवन करें। जिससे इन्द्र नामक अग्नि दौड़ जावे और सोम का पानकर वर्षा का
हेतु हो।
अर्थात् यज्ञ की प्रचण्ड अग्नि से मेघ तैयार होते हैं और घने मेघों से
वर्षा।
आ ते सुपर्णा अमिनन्तं एवैः कृष्णो नोनाव वृषभो
यदीदम्।
शिवाभिर्न स्मयमानाभिरागात् पतन्ति मिहः
स्तनयन्त्यभ्रा।। ( ऋग्वेद- 1.79.2
)
अर्थात् हे अग्ने! जब मेरी उत्तम
शक्तियां सब ओर से मेघ पर आघात करती हैं, तब काले रंग का बरसने वाला बादल इध्र की ओर
झुकता है। वह शान्तिदायक मुस्कुराती हुई बिजलियों से युक्त हो जाता है, पिफर मेघ गरजते
हैं और मेघ बरसते है।
वेदों में ही नहीं मनुस्मृति में भी यज्ञ को वर्षा का मुख्य कारण माना गया
है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यग्
आदित्यमुपतिष्ठते।
आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः
प्रजाः।। ( मनुस्मृति- 3.76
)
अर्थात् आहवनीय अग्नि में यथाविध्
िजो आहुति दी जाती है, वह द्युलोकस्थ आदित्य को प्राप्त हो जाती है। जिसके पफलस्वरूप
सूर्य वृष्टि करते हैं। श्रीमद्भगवद् गीता में भी कहा गया है-
अन्नाद्
भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यो
यज्ञः कर्म समुद्भवः।। ( गीता- 3.14
)
अर्थात् यज्ञ से मेघ बनते हैं, मेघ
से वर्षा होती है और वर्षा से अन्न की उत्पत्ति होती है।
‘‘यज्ञ द्वारा वर्षा सम्भव है’’– यह बात मात्रा वेद, उपनिषद,
ब्राह्मणग्रन्थ, मनुस्मृति व गीता आदि में ही वर्णित नहीं है, इसके अचूक प्रयोग भी हो
चुके हैं। यह कोई कोरी कल्पना नहीं है, बल्कि इसे विद्वानों ने प्रक्रियात्मक रूप भी
दिया है। जगह-जगह ऐसे अनेक वृष्टि यज्ञ कराए गए और वे सपफल भी हुए। यज्ञ के द्वारा
बादलों को बरसाया ही नहीं जाता, अपितु बादलों का निर्माण भी होता है। यदि आकाश
मेघाच्छादित न हों तो भी वर्षा करायी जा सकती है। किन्तु ये समस्त क्रियाएं अग्नि के
बिना सम्भव नहीं है व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु (
यजुर्वेद- 1.25 ) का यह वाक्य स्पष्ट करता है कि जिस
यज्ञ का हम अनुष्ठान करते हैं, वे मेघमण्डल में जाकर पृथ्वी के स्थान विशेष पर वर्षा
करते हैं।
वृष्टि यज्ञ के प्रयोग-
1. वेद विज्ञानाचार्य पं.
वीरसेन वेदश्रमीजी ;इन्दौर, म.प्र.द्ध लिखते हैं- वृष्टियज्ञ कराने के लगभग 25 परीक्षण
मेरे द्वारा सम्पन्न हुए हैं। अन्य भी अनेक व्यक्तियों ने यज्ञ किए हैं। उनमें भी पूर्ण
रूप से या आंशिक सफलता अवश्य हुई है।
2. ‘‘आर्य जगत सार्वदेशिक नई दिल्ली’’ के
25.10.87 के अंक में, श्री रमेश मुनि वानप्रस्थी जी ने ‘वृष्टि महायज्ञ की सही प(ति’
नामक लेख लिखा था। जिसमें उन्होंने बतलाया 21.8.87 से 27.8.87 तक उन्होंने आर्य समाज,
आदर्शनगर, जयपुर में वृष्टियज्ञ कराया था, जिससे वहां घनघोर वर्षा हुई।
3. 1973 में
आर्य समाज नागोरी गेट, हिसार के प्रांगण में स्वामी अग्निदेव भीष्म जी के सान्निध्य में
वृष्टि यज्ञ का सपफल आयोजन हुआ।
4. डॉ0 कमलनारायण आर्य, वैदिक पर्यावरणविद्, रायपुर
में अपने जीवनकाल में अब तक 25 वृष्टियज्ञ कराए हैं। उनमें विशेष सपफलता प्राप्त हुई
है। वृष्टियज्ञ का कार्य अभी भी चल रहा है, उनकी यह विद्या अनुकरणीय है।
वृष्टियज्ञ सम्बन्धी महर्षि दयानन्द जी के विचार-
1. जो होत्रा करने
के द्रव्य अग्नि में डाले जाते हैं, उनसे धुँआ और भाप उत्पन्न होते हैं….वे परमाणु
मेघमण्डल में वायु के आधर पर रहते हैं, पिफर वे परस्पर बादल होके उनसे वृष्टि, वृष्टि
से औषध्,ि औषध्यिों से अन्न, अन्न से धतु, धतुओं से शरीर बनता है। ( ऋग्वेदादि ;भाष्यद्ध भूमिका वेद विषय विचार
)
2. वे ही मनुष्य उत्तम दाता हैं, जो यज्ञ द्वारा
जंगलों की रक्षा और जलाशयों के निर्माण से बहुत वर्षाओं को कराते हैं।
3. जो वृष्टि
कराने वाले वायु और अग्नि आदि को विशेष करके जानते हैं, वे इनको वृष्टि करने के लिए
प्रेरणा करने में समर्थ होते हैं।
4. मनुष्य लोगों को चाहिए कि जिस मेघ से सबका पालन
होता है, उसकी वृ(ि वृक्षों के लगाने, वनों की रक्षा करने और होत्रा करने से- सि( करेंऋ
जिससे सबका पालन सुख से होवे।
5. वर्षा का हेतु जो यज्ञ है, उसका अनुष्ठान करके नाना
प्रकार के सुख उत्पन्न करना चाहिए। क्योंकि यज्ञ के करने से वायु और वृष्टि जल की
शुद्धि द्वारा संसार में अत्यन्त सुख सिद्ध होता है।
6. मनुष्य को अपने विज्ञान से
अच्छी प्रकार पदार्थों को इकट्ठा करके उससे यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए, जो कि वृष्टि
को बढ़ाने वाला है।
7. ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठानों में किये हुए हवन आदि से पवन और
वर्षाजल की शुद्धि होती है, उससे शुद्ध जल की वर्षा होती है, जिससे भूमि पर जो उत्पन्न
हुए जीव हैं, वे तृप्त होते हैं।
8. जब विद्वान् जन सुगन्ध्त्यादि पदार्थों के हवन
से जलों की शुद्धि करवाते हैं, तब प्रशंसा को प्राप्त होते हैं।
9. सुगन्ध्ति द्रव्य
के परमाणुओं से युक्त वायु होम द्वारा आकाश में चढ़कर वृष्टि करवाती है। यज्ञ से
अन्तरिक्ष में वाष्प भार की वृद्धि होती है, जो वर्षा का कारण बनती है।अर्थात् जब
वृष्टियज्ञ कराया जाता है, तब उसमें वृष्टि करवाने वाली औषध्यिों को डाला जाता है, तो
वे अपने साथ जल वाष्प को भी ले जाती हैं। यह वाष्प और गैस उफपर जाकर बादल बन जाते हैं
और पहले से विद्यमान बादलों में समाने लगते हैं। जिससे उनके भार में वृद्धि होने लगती
है, यही वृद्धि वर्षा का कारण बनती है।
वृष्टि यज्ञ सम्बन्धी महर्षि दयानन्द जी के पत्र-
पहला पत्र- 10-15
अगस्त 1883 को उदयपुर के महाराजा सज्जनसिंह को लिखा- ‘आरोग्य और अध्कि वर्षा के लिए एक
वर्ष में 10000/- रुपये के घृतादि का जिस रीति से होत्रा हुआ था, उसी रीति से प्रतिवर्ष
कराइए। चारों वेदों के ब्राह्मण का वरणकर एक सुपरीक्षित धर्मिक पुरुष उन पर रख के होत्र
कराइयेगा।
दूसरा पत्र- 8 सितम्बर 1883 को श्रीमद्राज राजेश्वर, जोध्पुर नरेश को लिखा गया- वर्षा प्रायः न्यून होती है, इसके लिए 10000/- रुपये का घृतादि का नित्यप्रति और वर्षाकाल में चार महीने तक अधिक होत्र कराइएगा। वैसा प्रतिवर्ष होता रहे तो सम्भव है कि देश में रोग न्यून और वर्षा अध्कि हुआ करे। ( साभार दयानन्द के पत्र एवं विज्ञापन द्वारा रामलाल कपूर ट्रस्ट )
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद भाष्य तथा स्वरचित अन्य ग्रन्थांे में यज्ञ के चार
गुणयुक्त हविर्द्रव्य बनाने का उल्लेख किया है।
यथा-
अग्निहोत्रामारभ्याश्वमेध्पर्यन्तेषु यज्ञेषु
सुगन्ध्मििष्टपुष्ट-रोगनाशकगुणेर्यक्तस्य सम्यक संस्कारेण
शोध्तिस्य द्रव्यस्य वायुवृष्टिजलशुद्कधिरणार्थमग्नौ होमो
क्रियते, स तद्वारा सर्वजगत् सुखकार्येव
भवति।
अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध् पर्यन्त जो कर्मकाण्ड हैं, उसमें
चार प्रकार के गुणयुक्त (सुगन्ध्ति, पुष्टिकारक, मिष्ट, रोगनाशक) द्रव्यों का होम करना
होता है।
केशर-कस्तूरी आदि सुगन्ध्, घृत-दुग्ध् आदि पुष्ट, गुड़-शर्करा आदि मिष्ट तथा सोमलतादि औषध् िरोगनाशक- ये जो चार प्रकार के बुद्धिव्रद्धि, शूरता, धीरता, बल और आरोग्य करने वाले गुणों से युक्त पदार्थ हैं, उनका होम करने से पवन और वर्षाजल की शु(ि करके शु( पवन और जल के योग से पृथ्वी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उससे सब जीवों को परम सुख होता है। इस कारण उस अग्निहोत्रा-कर्म करनेवाले मनुष्यों को भी जीवों के उपकार करने से अत्यन्त सुख का लाभ होता है तथा ईश्वर भी इन मनुष्यों पर प्रसन्न होता है। ऐसे प्रयोजनों के अर्थ अग्निहोत्रादि का करना अत्यन्त उचित है। ( ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ- ४४, यजु.भाष्य- ३.१, १९.२१, संस्कारविधि सामान्य प्रकरण पृष्ठ- ३७ )