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यज्ञीय पदार्थ

यज्ञ के उपयोगी वे समस्त पदार्थ यज्ञीय हैं जिनसे यज्ञ का अनुष्ठान
किया जा सकता है।
यज्ञ के आवश्यक पदार्थाें मे घृत आदि द्रवपदार्थ, हविर्द्रव्य
(सामग्री), समिधा, कुण्ड, अरणी और मन्त्रादि मुख्य हैं। यज्ञवेदी,
याजक, यजमान, यज्ञायुध् (यज्ञपात्र), देवता, पार्थिव सम्भार, हरियाली
आदि सहायक साधन हैं।
विरूप आडिग्ंरस ऋषि द्वारा दृष्ट अग्निदेवता युत्तफ ऋग्वेदीय मन्त्र
में सीधे सरल शब्दों में आडम्बर रहित यज्ञ के साधनाे से होम करने
का आदेश दिया गया है। यथाः-

समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन।।
1 (ऋग्वेद-8.44.1, यजुर्वेद- 3.1 )

समिधाओं से अग्नि प्रदीप्त करो, घृत आदि से जलती हुई अग्नि
की सेवा करो और उसमें सामग्री की आहुति प्रदान करो।
यजुर्वेद में होम के कतिपय पदार्थों के नाम गिनाये गये हैं। यथाः.-

धानाः करम्भः परीवापः पयो दधि ।
सोमस्य रूपं हविष आमिक्षा वाजिनम्मधु।।
अग्निर्भेषजं पयः सोमः परिस्रुतो घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज।।
2 (यजुर्वेद- 19.21, 21.40 )

होम करने योग्य पदार्थ– ओषधियाें के सार धान आदि अन्न,
भुने हुए धान्य, सत्तू , दूध, दही, आमिक्षा, वाजिन, शहद, सोम और
घृत आदि हैं।

द्रव पदार्थ
यज्ञीय द्रव पदार्थों में ‘घृत’ के सम्बन्ध् में विशद चिन्तन एवं प्रयोग
उपलब्ध् है। शेष तीन द्रव- शहद, दुग्धादि और सोमरस पर अत्यल्प
वर्णन दिखाई देता है।

घृत
हवन की अग्नि को अत्यधिक प्रदीप्त करने का मुख्य साधन
‘घृत’ नामक द्रव पदार्थ है, जिसके अन्य नाम आज्य तथा सर्पि भी
है। प्राचीन साहित्य में अग्नि को घृतास्य, घृतप्रतीक, घृतपृष्ठ एवं
घृताहवन आदि सम्बोधन दिये गये हैं। यथाः-

घृताहवन दीदिवः प्रतिष्म रिषतो दह।
अग्ने त्वं रक्षस्विनः।।
1(ऋग्वेद-1.12.5 )

भाष्यकार आचार्य सायण के अनुसार ‘घी से प्रदीप्त यज्ञाग्नि हमारे
प्रतिकूल शत्रुओं और दोषों को सर्वथा भस्म करने में समर्थ है।”

ऋग्वेद में ही अन्यत्र अग्निदेवता वाले सूत्त में गृत्समद ट्टषि ने
कहा है- जिघम्र्यग्निं हविषा घृतेन प्रतिक्षियन्तं भुवनानि विश्वा’
2(ऋग्वेद-2.10.4 )

सम्पूर्ण लोकों का आधार प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान अग्नि को मैं
होमने योग्य घी से प्रदीप्त करता हूँ।
घृत देवता वाले सूत्त के द्रष्टा ट्टषि वामदेव ने अनेक मन्त्रांशों में
घी के प्रभाव का वर्णन किया है। यथाः-

घृतस्य धारा समिधाे नसन्त ता जुषाणो हर्यति जातवेदाः।3(ऋग्वेद-4.58.8 )

जातवेद अग्नि, घृत की धारा और काष्ठ का सेवन करता हुआ
सबके प्रिय की कामना करता है।

यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञो घृतस्य धारा अभितत्पवन्ते।4(ऋग्वेद-4.58.10 )

घी की धारा से सम्पन्न होने वाला यज्ञ पवित्रता देता है तथा
ओषधियाें में रस का संचार करता है।

इमं यज्ञं नयतदेवता नो घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ते।1(ऋग्वेद- 4.58.10 )

देवगण इस यज्ञ को हम लोगों के लिये प्राप्त करायें, घृत की
धारायें मधुरता पूर्वक शुध्द करती हैं।

घृतमग्नेर्वध्यरश्वस्य वर्धनं घृतमन्न घृतम्वस्य मेदनम्।
घृतेनाहुत उर्विया वि पप्रथे सूर्य इव रोचते सर्पिरासुतिः।।
2(ऋग्वेद- 10.69.2 )

बंधे तेज वाले अग्नि का बढ़ाने वाला घृत है। घृत उसका अन्न
है, घृत ही उसका पोषक है, घृत से हुत अग्नि अधिक विस्तार को
प्राप्त होता है। घी की आहुति दी जाने से यह अग्नि सूर्य के समान
दीप्त होती है।
यजुर्वेद में भी यज्ञीय घृत का वर्णन उपलब्ध् है। यथा-

घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथाम्।।1।।
यज्ञ के माध्यम से घी को द्यौ तथा पृथिवीलोक में भरें।

घृतस्यास्मिन यज्ञे धरयामा नमोभिः।।2।।

घृतस्य धारा अभिचाकशीमि।।3।।3(यजुर्वेद- 5.28, 17.90, 17.93 )

इस यज्ञ में अन्न आदि पदार्थों के साथ घी की धारा बहायें।
सामवेद में भी कहा गया हैः-

घृतं पवस्य धारया यज्ञेषु देववीतमः।
अस्मभ्यं वृष्टिमा पव।।
4सामवेद- 1437)

यज्ञों में वायु आदि देवों का उत्तम आहार घृत की धारा बहायें
जिससे वे हमें सुवृष्टिप्रदान करें।
संहिता तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में भी घी (आज्य व सर्पि) का महत्व
न केवल यज्ञ की अग्नि के लिये अपितु पर्यावरण- शोधन में भी
महत्वपूर्ण द्रव के रूप में प्रतिपादित है। यथा-

आज्येन वै वज्रेन देवा वृत्रमहनन्।।1(काठक संहिता- 24.9 )
देवगण घी रूप वज्र से शत्रुरूप प्रदूषण का विनाश करते हैं।

घृतेन ते (अग्ने) तन्व वर्धयामि।।2(काठक संहिता- 38.12 )
घी के द्वारा अग्निशरीर (ऊर्जा) को बढ़ाते हैं।

आज्यं वै यज्ञः– घी ही यज्ञ है।3(मैत्रायणी संहिता- 4.1.12 )

यदसर्पत्तत्सर्पिः अभवत्।।4(तैत्तिरीय संहिता- 2.3.10.1 )

जो सर्प की तरह गतिशील है वह घृत सर्पि है अथवा जिस तरह
सर्प हवा का जहर पीकर वायु को विषमुत्तक् करता है, वैसे ही सर्पि भी
यज्ञ के द्वारा पर्यावरण को प्रदूषणमुत्तक् करने में समर्थ है।

सर्वदेवत्यं वै घृतम्– घी सभी देवताओं का पोषक है।5(कौषीतकी ब्राह्मण- 21.4, 14.4 )

आज्येन वै देवाः सर्वान् कामानजयन्सर्वममृतत्वम्।।6(कौषीतकी ब्राह्मण- 4.4 )

आज्य से ही देवगण सभी कामनाओं को जीतते हैं और अमर होते हैं।
“ऐतरेय ब्राह्मण” में घी का वर्गीकरण करते हुए उसके प्रभाव
का वर्णन भी किया गया है। यथाः-

आज्यं वै देवानाम् सुरभिघृतं मनुष्याणाम्।
आयुतं पितृणाम् नवनीतं गर्भाणाम्।।
7(ऐतरेय ब्राह्मण- 1.3.5 )

आज्य देवताओं के लिये होता है, सुगन्धित घी मनुष्यों के लिये है, आयुत
पितराें के लिये होता है और नवनीत गर्भस्थ जीवों के लिये होता है।
भाष्यकार आचार्य सायण ने घी और आज्य आदि में अन्तर को विभाजित
करते हुए पूर्व आचार्यों का कथन उध्दर््त किया है। यथाः-

सर्पिर्विलीनमाज्यं स्याद् धनीभूतं घृतं विदुः।
विलीनार्धमायुतं तु नवनीतो यतो घृतमित्याहुः।।

आज्य – (सर्पि) पिघला हुआ घी।
घृत – जमा हुआ घी
आयुत – आधा पिघला हुआ घी।
नवनीत – घी का पूर्व रूप मक्खन।

एतध्दै प्रत्यक्षाद्यज्ञरूपं यद् घृतम्।।1(शतपथ ब्राह्मण- 12.8.2.15 )
यह जो घी है वह प्रत्यक्ष यज्ञ रूप है।

एषा हि विश्वेषां देवानां तनुः यदाज्यम्।।2(ऐतरेय ब्राह्मण- 3.3.4.6 )

प्राचीन यज्ञाचार्यों के अनुसार घृत से गोघृत ही ग्राह्य है। यज्ञों में
प्रायः गाय के घी से आहुति का विधान दिखाई देता है। एक चिकित्सक
डाॅ. फुन्दनलाल अग्निहोत्राी ने जबलपुर टी. बी. सेनिटोरियम में यज्ञ के
द्वारा क्षयरोगियो की चिकित्सा का प्रयोग किया था। जिसमें रोगियों को
तीन भागों में बाँट कर अलग-अलग कमरांे में क्रमशः गाय व भैंस के
घी एवं वनस्पति घी (डालडा) में क्षयनाशक ओधधियाें को मिलाकर
हवन में आहुति देकर चिकित्सा आंरभ की। कुछ दिनांे बाद जांच में
पता चला कि जिन रोगियों का उपचार गोघृत के हवन से किया गया
उनका रोग 60-70 प्रतिशत ठीक हुआ। भैंस के घी से रोग 30-40
प्रतिशत घटा हुआ पाया गया, किन्तु डालडा के हवन से रोगियों को
लाभ की अपेक्षा हानि हुई, रोगाणु बढ़े हुए पाये गये, उनकी पुनः विशेष
चिकित्सा की गई।3(वेदवाणी (मासिक) के अग्निहोत्र विशेषंाक में सम्पादक पं. मीमांसक युधिष्ठिर
की टिप्पणी।)

पर्यावरणविद् भी आणविक युग में गाय का महत्व प्रतिपादित करते
हुए कहते हैं कि “गाय के दूध् में सबसे ज्यादा शक्ति है। जिन घरों
में गाय के गोबर से लिपाई करते हैं उन घरों में रेडियो विकिरण का
प्रभाव नहीं पड़ता। यदि गाय के घी को अग्नि में डालकर धुआं करें।

तो वायुमण्डल में एटोमिक रेडियेशन का प्रभाव बहुत कम ही रहेगा।
इससे स्पष्ट होता है कि भारत की पुरातन संस्कृति, जिसमें गाय की
पूजा होती थी तथा हवन में गाय के घी का उपयोग होता था, बिलकुल
वैज्ञानिक था। हवन से हवा शुय हो जाती है, यह बात स्पष्ट है।1
(संरक्षण या विनाश (रेडियो धर्मिता), सरला देवी पृष्ठ- 123 )

आधुनिक वैज्ञानिक सन्दर्भ में भी गोघृत का महत्व स्वीकार किया
जा रहा है। यथा- यद्यपि अग्निहोत्र से लेकर सभी यज्ञों की विधि,
मन्त्र एवं सामग्री भिन्न-भिन्न है तथापि एक चीज सबमें समान रूप से
अनिवार्य, अपरिहार्य है और वह है गाय का घी। गोघृत की आहुतियां
अग्नि में देने से वायुमण्डल, सुगन्धित एवं पुष्टिकारक बनता है। प्रदूषण
के कारण वातावरण में समाये रसायनादि सभी विषों का प्रभाव गोघृत
के अग्नि में हवन से तत्काल नष्ट होता है।
पूना के फग्य्रुसन कालेज के जीवाणुशास्त्रिायों ने एक प्रयोग में पाया
है कि नित्य अग्निहोत्र की एक समय की आहुतियांे से 36×22×10
फुट के हाल में कृत्रिमरूप से निर्मित वायुप्रदूषण खत्म हुआ। इस प्रयोग
से सिध्द हुआ कि एक समय के अग्निहोत्र से ही 8000 घनफुट वायु
का 77.5 प्रतिशत हिस्सा शुध्द एवं पुष्टिकारक गैसों से युक्त होता है।
इस प्रयोग से यह भी पाया गया कि एक समय के अग्निहोत्र से ही
96 प्रतिशत हानिकारक कीटाणु नष्ट होते हैं।
गोघृत के ज्वलन से उत्पन्न गैसें प्राकृतिक चक्र को सन्तुलित करने
का कार्य करती हैं। जिस स्थान पर गोघृत से हवन होता है वहाँ के
वातावरण से रोगजनक कीटाणु नष्ट होते हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, प्राणी
तथा वनस्पति आदि सजीव सृष्टि के लिये शुध्द एवं पुष्टिदायक वातावरण
निर्माण करना गोघृत का कार्य है।

शहद

यज्ञ कर्म में शहद भी आहुतिद्रव्य के रूप में उपयोगी माना गया हैः-
यज्ञं मधुना मिमिक्षतम् 2- शहद से यज्ञ को सीचें।(ऋग्वेद- 1.34.3 )

पृड़क्तं हवींषि मधुना1- यज्ञीय हवियों को मधु से संयुक्त करें।(ऋग्वेद- 2.37.5 )

मध्वा सम्पृक्ता सारघेण धेनवस्तूयमेहि द्रवा पिब।।2(ऋग्वेद- 8.4.8 )
मधुमक्खियों द्वारा संगृहीत शहद से युक्त ह्नय पदार्थों को इन्द्र (सूर्य
यज्ञ के माध्यम से) खाये।

मधु वै देवानां परममन्नद्यम्।3(तैत्तिरीय संहिता- 7.5.10.1 )

यज्ञो वै मधुसारघम्4- शहद ही देवताओं का उत्तम पेय है।(शतपथ ब्राह्मण- 3.4.3.14 )

दुग्ध एवं दधि

घृत का पूर्व रूप (कारण) दूध और दही भी यज्ञीय पदार्थ में
परिगणित हैं।
अग्निहोत्र एवं दर्शयाग के अवान्तर देवता (इन्द्र) के लिये प्रायः
दूध तथा दधि ही हविर्द्रव्य माने गये हैं।
आरण्यक ग्रन्थ में कहा गया है- यज्ञेन पयसा सह… तस्य
दोहमशीय।
5(तैत्तिरीय आरण्यक- 4.21.1 )
दूध की आहुति से सम्पन्न यज्ञ के द्वारा जीवनी- शक्ति को प्राप्त
करते हैं। संहिता में दधि के लिये कहा गया हैः-

दध्ना मधुमिश्रेणावोज्ञतिदध्नैव हुतादः (देवान्) प्रीणाति।6(तैत्तिरीय संहिता- 5.4.5.2 )
मधुर दही की आहुति से देवताओं को प्रसन्न (अनुकूल) किया जाता है।

मेद्यो वा एष पशुनामुर्ग् दधि7- पशुओं का सार दही यजनीय है।(काठक संहिता- 20.7 )

आमिक्षा

दही का ही अपर रूप आमिक्षा और वाजिन् है। दही के ठोस
भाग को आमिक्षा एवं तरल भाग को वाजिन् कहते हैं। ब्राह्मणग्रन्थों में
आमिक्षा का अन्य नाम पयस्या भी दिया गया है। कुछ देवताओं के
लिये इसकी आहुति का विधान उपलब्ध होता है। यथाः-

यत् पयस्या तेन चातुर्मास्यानि।।1(जैमिनीय ब्राह्मण्- 2.38 )
जो आमिक्षा है उससे चातुर्मास्य होम होते हैं।

वैश्वदेव्यामिक्षा भवति, वैश्वदेवीमामिक्षां निर्वपति।2(तैत्तिरीय संहिता- 1.6.2.5, 1.8.2.1 )
आमिक्षा चातुर्मास्य होम के वैश्वदेव पर्व की हवि है।

मारुत्यामिक्षा, वारुण्यामिक्षा।।3(मैत्रायणी संहिता- 1.10.1, काठक संहिता- 9.4 )
आमिक्षा मरुत् तथा वरुण देवताओं के लिये हवि है।

मैत्रावरुणीमामिक्षां निर्वपति।4(तैत्तिरीय संहिता- 1.8.19.1 )
मैत्रावरुणी पयस्या भवति।5(शतपथ ब्राह्मण- 5.5.1.1 )
एतद्वै मित्रावरुणयोः एवं हविर्यत्पयस्या।6(तैत्तिरीय संहिता- 5.4.5.2 )
मित्र और वरुण के लिये आमिक्षा की आहुति दी जाती है।

अन्य द्रव

कर्मकाण्डीय विद्वान् ने गोघृत आदि के विकल्प में अन्य द्रवाें
को भी यज्ञीय प्रतिपादित किया है, उन्होंने बौधायन, मण्डन तथा
विष्णुधर्माेत्तर के उध्दरण से अनेक प्रतिनिधि द्रव लिखें है। यथा-

घृतार्थे गोघृतं ग्राह्यं तदभावे तु माहिषम्।
आजं वा तदभावे तु साक्षात्तैलमपीष्यते।।
तैलाभावे ग्रहीतव्यं तैलं जर्तिलसम्भवम्।
तदभावेक्ष्तसीस्नेहं कौसुम्भं सर्षपाेदभव:।।
7(यज्ञ मीमांसा, पं. वेणीराम शर्मा गौड़, पृष्ठ- 263 )

हवन के लिये सबसे अच्छा गोघृत होता है। उसके अभाव में भैंस
का घृत, भैंसघृत के अभाव में बकरी का घृत। उसके अभाव में शुध्द
तेल, तेल के अभाव में जर्तिल (जैतन) का तेल। उसके अभाव में
अलसी तेल, उसके अभाव में कौसुम्भ अथवा पीली सरसों का तेल।
उसके अभाव में गोंद, गोंद के अभाव में यव, सावाँ चावल इन तीनाें
में से किसी एक के तेल से काम चलावे।

दध्यलाभे पयः कार्यं मध्यलाभे तथा गुडः।
घृतप्रतिनिधि: कुर्यात् पयो दधि वा नृप।।
1(यज्ञ मीमांसा, पं. वेणीराम शर्मा गौड़, पृष्ठ- 264 )

दही न मिलने पर दूध् की आहुति दे, शहद न मिलने पर गुड़
की, घृत के स्थान में दूध् या दही से यज्ञ करे।
वैकल्पिक यज्ञीय द्रवाें के विवरण से ज्ञात होता है कि इनका
प्रभाव उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है। इसलिये पर्यावरण शोधन के लिये
प्रभावी द्रव- गाेघृत से ही यज्ञ किया जाना आवश्यक है तथा किसी
कारणवश उपलब्ध् न हो तब भी यज्ञ नहीं रुकना चाहिए। यह भी इस
वैकल्पिक विधान से ज्ञात होता है।

सोमरस

यज्ञीय द्रव सोमरस के सम्बन्ध् में अनेकों भ्रान्तियां प्रचलित हैं। कुछ
विद्वान् हिमालय की हिमाच्छादित चोटियांे में मिलने वाली जड़ी-बूटी
को सोम कहते हैं तो अन्य गिलोय को। वस्तुतः सोम एक औषधि
है, जिसकी उपलब्ध्ता अथवा परिचय स्पष्ट नहीं है। विद्वानांे ने सोम
के आयुर्वेदिक वर्णन तथा अग्नि में पड़ने से तिड़-तिड़ की ध्वनि
रूप लक्षण के आधर पर ‘मीठी कूठ’ नामक औषध् िको सोम का
स्थानापन्न मानकर सोम के गुणसाम्य वाली अन्य औषधियाें के मिश्रण
से सोमरस बनाने की विधि और मात्रा लिखी है। यथा-
शंखपुष्पी 500 ग्राम, ब्राह्मी 250 ग्राम, शतावर 1 किलाे,
चन्दनचूरासफेद 250 ग्राम, गिलोय 250 ग्राम, गुलाबफूल 250 ग्राम,
जटामांसी 50 ग्राम, वच 50 ग्राम, वनतुलसी 250 ग्राम, बला 125 ग्राम,
अतिबला 125 ग्राम, महाबला 125 ग्राम, नागबला 125 ग्राम, मुनक्का
250 ग्राम, कपूर 1 माशा, अर्जुन की छाल 250 ग्राम, अपामार्ग 50 ग्राम,
मीठीकूठ 100 ग्राम, पीपलबड़ी 50 ग्राम, मुलहठी 500 ग्राम, असगन्ध्
500 ग्राम, बिदारीकन्द 500 ग्राम, कपूरकचरी 250 ग्राम, मालकांगनी
500 ग्राम, काकड़ासिंगी 125 ग्राम, पुनर्नवा 50 ग्राम, मेदा 50 ग्राम,
महामेदा 50 ग्राम, काकोली 50 ग्राम, क्षीरकाकोली 50 ग्राम, ऋद्धि 50
ग्राम, वृद्धि 50 ग्राम, जीवक 50 ग्राम, ऋषभक 50 ग्राम, जीवला 50
ग्राम, बालछड़ 50 ग्राम- इन सब औषधियाें को कूटकर आठ गुना जल
में भिगोकर रखें। 12 घण्टे बाद इनका जुशांदा बनायें। जल शेष रह
जावे। प्रति किलो जुशांदा में 300 ग्राम शहद, गोघृत 150 ग्राम, गोदुग्ध्
1 किलो, नारियल 250 ग्राम मिला दें। फिर इसकी आहुतियां दें। यदि
अर्क निकालना हो तो पांच गुना पानी मिला कर अर्क निकाल बोतलों
में रखें और यथासमय प्रयोग करें।1(अध्यात्म सुधा 4 (सामाजिक यज्ञ पद्धतियाॅं) स्वामी विज्ञानानन्द, पृष्ठ- 338 )

हव्य सामग्री-

यज्ञों में दी जाने वाली आहुतियाँ, घृत के साथ अन्न आदि औषधियाॅं
भी होती हैं। विविध् यज्ञों के हविर्द्रव्य में एकरूपता नहीं दिखाई देती
और उनका विवरण भी एकत्र नहीं है। किसी याज्ञिक आचार्य ने किसी
अन्य औषधि को हविर्द्रव्य कहा है तो किसी अन्य ने कुछ और।
महर्षि कात्यायन ने होम में विहित धान्य का विभाजन पूर्वक तीन
प्रकार के हविर्द्रव्य लिखे हैं। यथा-

कृतमोदनं सक्त्वादि तण्डुलादि कृताकृतम्।
व्रीह्यादि चाकृतं प्रोक्तमिति वेद्यं त्रिधा बुधै:।।
2(कात्यायन श्रौतसूत्र- अ.-1 )

भात, सत्तू आदि संस्कृत धान्य को कृत हविर्द्रव्य कहते हैं।
चावल-अर्धसंस्कृत धान्य को कृताकृत कहते हैं।
धान, जौ आदि असंस्कृत धान्य को अकृत हविर्द्रव्य कहते हैं।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद भाष्य तथा स्वरचित अन्य ग्रंथाें
में यज्ञसामग्री के चार भेदों का उल्लेख किया है। यथा-

अग्निहाेत्रमारभ्याश्वमेधपर्यन्तेषु यज्ञेषु सुगन्धिमिष्टपुष्ट-
राे गनाशकगुणैर्युक्तस्य सम्यक संस्कारेण शाेधितस्य द्रव्यस्य
वायुवृष्टिजलशुध्दिकरणार्थमग्नौ होमो क्रियते, स तद्वारा सर्वजगत्
सुखकार्येव भवति।
1(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, स्वामी दयानन्द सरस्वती, पृष्ठ- 44 )

अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध् पर्यन्त जो कर्मकाण्ड है, उसमें चार
गुण युक्त द्रव्याें का होम करना होता है, वे हैं-
(1) सुगन्धित
(2) पुष्टिकारक
(3) मिष्टगुणयुक्त
(4) रोगनाशक

इन चारों गुण युक्त द्रव्यों का परस्पर शोधन, संस्कार कर अग्नि में
युक्तिपूर्वक जो होम किया जाता है, वह वायु एवं वृष्टिजल की शुध्दि
करने वाला होता है। इससे सब जगत को सुख होता है।2(यजुर्वेद भाषाभाष्य- 3.1.19.21 संस्कारविधि सामान्य प्रकरण, पृष्ठ- 37 )

अथ हविष्यस्यान्नस्याग्नौ जुहुयातद्य कृतस्य वाsकृतस्य वा।।3(गोभिल गृह्यसूत्र- 1.3.6,7,8 )

अर्थात् अग्नि में पके हुए या कच्चे यव आदि अन्नरूप हविष्य
पदार्थ का हवन करें। यदि ओदन आदि अग्नि पर पका हुआ हविष्य
होम के योग्य न हो तो तण्डूल (चावल) तथा फल आदि जो भी
हविर्द्रव्य उपलब्ध् हो उन्हें जल से धाेकर गीला ही हवन में प्रयोग करें।
यदि दधि, दुग्ध अथवा यवागू से हवन करना हो तो स्रुवा से हवन करें।

अन्य कर्मकाण्डीय विद्वान् ने स्मृत्यन्तर तथा अनुष्ठान प्रकाश का
उध्दरण देकर कहा है-

हविष्यान्नं तिला माषा नीवारा व्रीहयो यवाः।1(2 यज्ञ मीमांसा, पं. वेणीराम शर्मा, पृष्ठ- 270 )
इक्षवः शालयो मुद्गाः पयो दधि घृतं मधु।।

तिल, उड़द, तिन्नी, भदौह, धान, जौ, बासमती और मूंग आदि
हविष्यान्न हैं।

होमं समारभेत् सर्पिर्यवव्रीहितिलादिना।2
तिल, जौ, चावल और घृत से हवन करे।

पुरोडाश- यह एक हवि विशेष है। इसका निर्माण यव या धन
से किया जाता है। वैदिक इण्डेक्स के अनुसार यह यज्ञीय चपाती या
रोटी है। स्वरूप एवं पाकविधि प्रायः मालपुए की तरह की होती है।

चरू- चरू भी एक हवि है। इसको घी या दूध् में पका कर
तैयार किया जाता है। यह चावल, गवीधुक धान्य, ज्वार आदि को
पीसकर तैयार किया जाता है। संभवतः यह खीर व हलवा के स्वरूप
का होता है।
करम्भ- जौ के सत्तु को घी से मिलाकर करम्भ तैयार किया जाता है।
मन्थ- गाय का दूध् आधे भुने जौ वाले पात्र में रखा जाता है
उसे एक दो बार ईख के डण्ठल से मथ दिया जाता है। मन्थन से
प्राप्त वस्तु मन्थ है।
धाना- भुने हुए जौ को धाना कहते हैं।