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समिधा

यज्ञ की अग्नि को जलाये रखने का प्रमुख साधन ‘समिधा’ का
नाम वैदिक साहित्य में कर्मकाण्डीय ग्रंथों में स्फुट रूप से चिंतन
किया गया है। यजुर्वेद में सप्त ते अग्ने समिधा1 अग्नि के लिये सात
समिधाओं का उल्लेख है किन्तु नाम नहीं दिया गया है।(यजुर्वेद- 17.79)

वैदिक साहित्य में इतस्ततः यज्ञीय वृक्षों के नाम उपलब्ध् हैं। यथा-

अश्वत्थ

अथर्ववेद के अश्वत्थसूत्तफ में इसे देवसदन ‘देवों का घर’ कहते
हुए प्रदूषण निवारक भी कहा गया है। यथा-

प्रेणान् वृक्षस्य शाखयाश्वत्थस्य नुदामहे।।2(अथर्ववेद- 3.6.8)

पीपल वृक्ष की शाखा से शत्रुओं या दोषों को दूर करते हैं।

अश्वत्थो अमृतं हविः3- पीपल अमृत हवि है। (अथर्ववेद- 8.7.20)

पूजित वृक्षों में अश्वत्थ पीपल का नाम अग्रगण्य है। यह भारतवर्ष
के विशालकाय वृक्षों में से एक है। इसका धार्मिक महत्व इस बात
से स्पष्ट है कि अश्वत्थ को देवों का गृह-सदन कहा गया है। तृतीय
स्वर्ग में देवगण का इसी वृक्ष के नीचे निवास बताया गया है। यथा-

अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि।4(अथर्ववेद- 5.4.3)

यज्ञ में अग्नि उत्पन्न करने के लिये दो लकड़ियों (अरणी) में
से उपरी लकड़ी के लिये इसी वृक्ष की लकड़ी का उपयोग होता है।
इसके नीचे की लकड़ी शमी की होती है।5(अथर्ववेद में सांस्कृतिक तत्व, पृष्ठ- 103)

न्यग्रोध

ऐतरेय ब्राह्मण में न्यग्रोध् (बड़, वट, फाइक्स बड्गलेन्सिस) की
लकड़ी से चमस बनाये जाने तथा यज्ञ में समिधा रूप में प्रयोग का
संकेत है।

अधि देवा यज्ञेनेष्टवा स्वर्गलोकमायस्तत्रैतांश्चमसान् न्युव्जंस्ते
न्यग्रोधा।
1(ऐतरेय ब्राह्मण- 7.30)
देवगण न्यग्रोध् के यज्ञ से स्वर्ग लोक को पाते हैं।

शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ के उपयोगी कुछ वृक्षों के नाम एक साथ
ही उल्लिखित हैं। यथा-

यदि पलाशान्न विन्देत्, अथोक्ष्पि वैकड्कतः स्युर्यदि वैकड्कतान्न
विन्देदथो अपि काष्मर्यान्न स्युर्यदि काष्मर्यमयान्न विन्देदथोक्ष्पि बैल्वः
स्युरथो खादिरा अथो औदुम्बरा ऐते हि वृक्षा यज्ञियास्तस्मादेतेषां
वृक्षाणां भवन्ति।।
2(शतपथ ब्राह्मण- 1.3.3.20)

पलाश (ढाक, व्युटिआ- माेनोस्पर्मा)
विघडंक्त (फ्लेकोर्टिया-मिर्र)
काष्मर्य (भद्रपर्णी)
बिल्व (श्रीफल, इगल-मरमेलोज),
खदिर (एकेशिया- कैटेचु)
उदुम्बर (गूलर, फाइकस- ग्लामरेटा)
अपामार्ग– (एनाइरेन्थस-एस्पिरालिन्न)
ब्राह्मण ग्रन्थों में ही अन्यत्रा ‘अपामार्ग’ को भी यज्ञीय समिधा के
रूप में प्रयोग का विधान है। यथा-

अथाक्ष्क्ष्पामार्गहोमं जुहोति3(शतपथ ब्राह्मण- 5.2.4.14)

अपामार्गैव देवा दिक्षु नाष्ट्रा रक्षांस्यपामृज यदपामार्गहोमो
भवति रक्षसामपहत्यै।।
4(तैत्तिरीय ब्राह्मण- 1,7,1,8)

अपामार्ग– होम से राक्षसाें अथवा प्रदूषणों का निवारण होता है।
अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड के सूक्त-17, 18, 19 में संशोधक औषधि
के रूप में अपामर्ग का वर्णन है। अधिकांश मन्त्रों में यह पद दोहराया
गया है- “अपामार्ग- त्वया वयं सर्वं तदप मृज्महे” हे सर्वसंशोधक
औषधि अपामार्ग! हम तुम्हारे द्वारा सबको शुद्ध करते हैं।
ब्राह्मण ग्रन्थ में कहा गया है कि अपामार्ग के होम से राक्षसों का
नाश होता है, जितने दुःखप्रद दोष अथवा बाधायें हैं, वे प्रदूषण रूपी
राक्षस दूर होते हैं! यथा-

यदपामार्गहोमो भवति रक्षसामपहत्यै।1(अथर्ववेद- 19.36.1.2)

उन वृक्षों की समिधायें यज्ञ में प्रयुक्त होती हैं, जिनसे प्रदूषण कम
और ऊर्जा तथा आरोग्य विशेष होता है। कामना भेद से भी समिधाओं
का प्रयोग होता है। सब कामनाओं के लिये पलाश (ढाक) की समिधा
श्रेष्ठ है। रोगनाशार्थ आक की समिधा उपयोगी है। खैर की समिधा
धन लाभ के लिये, पीपल की समिधा प्रजालाभ के लिये तथा शमी-
अदृष्ट दोषों के शमन के लिये उपयोगी है।2(यज्ञ महाविज्ञान)

शमी

यच्छमीशाखया प्रार्पयति शान्त्यै।।3(कपिष्ठल कठ संहिता- 46.8)
शान्ति की प्राप्ति के लिये शमी (तुडेना, प्रोसोपिस साइनेरिया)
वृक्ष की शाखा से यज्ञ किया जाता है।
पुराणकार ने उक्त वृक्षों के साथ-साथ कुछ अन्य वृक्षों को भी
यज्ञीय माना है। यथा-

पलाशाक्ष्श्वत्थन्यग्रोथ प्लक्षवैकड्ंकतोद्भवाः।
वैतसोदुम्बरो बिल्वश्चन्दनः सरलस्तथा।।
शालश्च देवदारूश्च खदिरश्चेति यज्ञिकाः।।
4(ब्रह्मपुराण)

धार्मिक वृक्षों में शमी का महत्वपूर्ण स्थान है। शमी बड़े-बड़े पत्तों
वाला वृक्ष है। यह वर्षा काल में बढ़ता है। वह वन के सभी वृक्षों में
श्रेष्ठ है। (अथर्ववेद में सांस्कृतिक तत्व, पृष्ठ 103) यथा-

आरात्वदन्या वनानि वृक्षि त्वं शमि शतवल्शा विरोह।1(अथर्ववेद- 6.30.2)

आरण्यक ग्रंथ में शमी को प्रदूषण निवारक निरुपित करते हुए
कहा गया है- “शमी शमयास्मदद्या द्वेषांसि”2 शमी हमारे अघ (पाप)
तथा द्वेष को दूर करें।(तैत्तिरीय आरण्यक- 6.9.2)

प्लक्ष- (पिलखन, पर्कटी, पाकड़, पकड़ी, फाइक्स लेकर)
सरल- (चीपद्रु, पीतद्रु, पीतवृक्ष, पित्तद्रुम, पाइनस रोकसबर्गोई)
वेतस- (सेलिक्स-केप्रा)
चन्दन- (सन्टलम-ऐल्बम)
शाल- (शोरया- राेबुस्टा)
देवदारु- (सीड्रस- देवदार)

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘आम’ (मैंगीफेरा इण्डिका) को भी
यज्ञ समिधा लिखा है।3(संस्कार विधि- सामान्य प्रकरण, स्वामी दयानन्दसरस्वती, पृष्ठ- 37)

अन्य विद्वान् ने खैर, आक, एवं युकेलिप्टिस को भी समिधा के
रूप में प्रयोग करने का संकेत करते हुए अन्य सुगंधित वृक्षों को यज्ञीय
कहा है।4(यज्ञमहाविज्ञान, पं. वीरसेन वेदश्रमी, पृष्ठ- 26, 68)