दैनिक अग्निहोत्र (देवयज्ञ)

वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मोऽसि विश्वधाऽअसि।
परमेण धाम्ना दृंहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिह्वार्षीत्।।

अर्थात्: हे विद्यायुक्त मनुष्य! तू जो यज्ञ शुद्धि का हेतु है। जो विज्ञान के प्रकाश का हेतु और सूर्य की किरणों में स्थिर होने वाला, वायु के साथ देश-देशान्तरों में फैलने वाला, वायु को शुद्ध करने वाला व संसार का धारण करने वाला तथा जो उत्तम स्थान से सुख का बढ़ाने वाला है। इस यज्ञ का तू मत त्याग कर तथा तेरा यज्ञ की रक्षा करने वाला यजमान भी उस को न त्यागे ।

...

अग्निहोत्र से वायु एवं वृष्टि जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होना अर्थात् शुद्ध वायु का श्वास, स्पर्श, खान-पान से आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़ के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अनुष्ठान पूरा होना, इसीलिये इस को देवयज्ञ कहते हैं। (स॰प्र॰ चतुर्थसमुल्लास) – महर्षि दयानंद सरस्वती।

मंगलाचरण

ओ३म्…ओ३म्…ओ३म्… (इसका तीन बार लम्बा उच्चारण करें)

आचमन मन्त्र

प्रस्तुत मन्त्र बोलकर दायीं हथेली में जल लेकर तीन आचमन करें ।
ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।।1।। इससे पहला आचमन
ओ३म् अमृतापिधानमसि स्वाहा ।।2।। इससे दूसरा आचमन
ओ३म् सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा ।।3।। इससे तीसरा आचमन

अंगस्पर्श मन्त्र

ओ३म् वाङ्म आस्येऽस्तु ।।1।। इससे मुख का अधोभाग,
ओ३म् नसोर्मे प्राणोऽस्तु ।।2।। इससे नासिका के दोनों छिद्र,
ओ३म् अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ।।3।। इससे दोनों आँखें,
ओ३म् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ।।४।। इससे दोनों कान,
ओ३म् बाह्वोर्मे बलमस्तु ।।5।। इससे दोनों बाहु,
ओ३म् ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ।।6।। इससे दोनों जंघा,
ओ३म् अरिष्टानि मे अङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु ।।7।।
इससे सम्पूर्ण शरीर पर जल छिड़के।

ईश्वर-स्तुतिप्रार्थनोपासना मन्त्र

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्न आ सुव ।।1।।

ओ३म् हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।2।।

ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः ।
यस्यच्छाया अमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।3।।

ओ३म् यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदः चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।4।।

ओ३म् येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा येन स्वः स्तभितं येन नाकः ।
योऽअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।५।।

ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमः तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ।।६।।

ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतम् आनशानाः तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ।।७।।

ओ३म् अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।।८।।

अथवा-
ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।

तूने हमें उत्पन्न किया, पालन कर रहा है तू ।
तुझसे ही पाते प्राण हम, दुःखियों के कष्ट हरता है तू ।।
तेरा महान् तेज है, छाया हुआ सभी स्थान ।
सृष्टि की वस्तु-वस्तु में, तू हो रहा है विद्यमान ।।
तेरा ही धरते ध्यान हम, माँगते-तेरी दया ।
ईष्वर हमारी बुद्धि को, श्रेष्ठ मार्ग पर चला ।।

अग्नि-प्रज्ज्वलन मन्त्र
प्रस्तुत मन्त्र का उच्चारण करते हुए दीपक जलायें।
ओ३म् भूर्भुवः स्वः।

यज्ञकुण्ड में अग्नि स्थापित करने का मन्त्र
प्रस्तुत मन्त्र का उच्चारण करते हुए कपूर को दीपक से प्रज्वलित करके यज्ञकुण्ड में रखें ।
ओ३म् भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठे अग्निम् अन्नादमन्नाद्यायादधे।।1।।

अग्नि-प्रदीप्त करने का मन्त्र
प्रणाम मुद्रा में हाथों को रखते हुए मंत्रोच्चारण करें, पश्चात घृताहुति देवें।
ओ३म्-उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूत्र्तेसं सृजेथामय´च ।
अस्मिन् सधस्ते अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ।।2।।

समिधाधान मन्त्र
इस मंत्र से घृत में गिली की हुई प्रथम समिधा अग्नि में आहुत करें।
ओ३म् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिः ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा ।
इदमग्नये जातवेदसे-इदन्न मम ।।1।।
इन दो मंत्रों से घृत में गिली की हुई द्वितीय समिधा अग्नि में आहुत करें।
ओ३म् समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम् ।
आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा ।।2।।
ओ३म् सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे-इदन्न मम ।।3।।
इस मंत्र से घृत में गिली की हुई तृतीय समिधा अग्नि में आहुत करें।
ओ३म् तन्त्वा समिद्भिः अंङ्गिरो घृतेन वर्द्धयामसि ।
बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा। इदमग्नयेऽङ्गिरसे-इदन्न मम ।।४।।

पंचघृताहुति मन्त्र
प्रस्तुत मन्त्र का पांच बार उच्चारण करें और प्रत्येक बार केवल घी की आहुति प्रदान करें।
ओ३म् अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्द्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन अन्नाद्येन समेधय स्वाहा।
इदमग्नये जातवेदसे-इदन्न मम ।।

जलप्रोक्षण मन्त्र
निम्न मंत्रों से जल सिंचन करें।
ओ३म् अदितेऽनुमन्यस्व ।।1।। (इससे पूर्व दिशा में बाईं से दायीं ओर)
ओ३म् अनुमतेऽनुमन्यस्व ।।2।। (इससे पश्चिम दिशा में दायीें से बाईं ओर)
ओ३म् सरस्वत्यनुमन्यस्व ।।3।। (इससे उत्तर दिशा में दायीें से बाईं ओर)
इस मन्त्र से पूर्व दिशा से शुरू करके वेदि के चारों ओर जल सेचन करें ।
ओ३म् देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय ।
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचन्नः स्वदतु ।।४।।

आघारावाज्यभागाहुति मन्त्र
प्रस्तुत मन्त्र से यज्ञकुण्ड के उत्तर में जलती हुई समिधा में घी की धार बनाते हुए आहुति दें।
ओ३म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये-इदन्न मम ।।1।।
प्रस्तुत मन्त्र से यज्ञकुण्ड के दक्षिण में जलती हुई समिधा में घी की धार बनाते हुए आहुति दें।
ओ३म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय-इदन्न मम ।।2।।
प्रस्तुत दो मन्त्रों से यज्ञकुण्ड के मध्य में जलती समिधा पर घी की आहुति दें।
ओ३म् प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये-इदन्न मम ।।3।।
ओ३म् इन्द्राय स्वाहा। इदमिन्द्राय-इदन्न मम ।।४।।

प्रातःकालीन आहुतियों के मन्त्र
प्रस्तुत मन्त्रों से घी तथा सामग्री की आहुतियाँ प्रदान करें।
ओ३म् सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा ।।1।।
ओ३म् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।।2।।
ओ३म् ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा ।।3।।
ओ३म् सजूर् देवेन सवित्रा सजूर् ऊषसेन्द्रवत्या।
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।।४।।

सायंकालीन आहुतियों के मन्त्र
प्रस्तुत तीसरे मन्त्र से मौन रहकर अर्थात ओ३म् तथा स्वाहा पद स्पष्ट बोले तथा शेष का मन में उच्चारण करके आहुति देवें।
ओ३म् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा ।।1।।
ओ३म् अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।।2।।
ओ३म् (अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः) स्वाहा ।।3।।
ओ३म् सजूर् देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या ।
जुषाणोऽअग्निर्वेतु स्वाहा ।।४।।

नोटःयदि एक बार ही यज्ञ करे, तो दोनों समय के मंत्रों की आहुति दें।

प्रातः-सायं दोनों समय की आहुतियों के मन्त्र
ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।
इदमग्नये प्राणाय-इदन्न मम।।1।।

ओ३म् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।
इदं वायवेऽपानाय-इदन्न मम।।2।।

ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।
इदमादित्याय व्यानाय- इदन्न मम।।3।।

ओ३म् भूर्भूवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।
इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः-इदन्न मम।।४।।

ओ३म् आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा।।5।।

ओ३म् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।।
तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविन कुरु स्वाहा ।।6।।

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद् भद्रन्तन्न आ सुव स्वाहा।।7।।

ओ३म् अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।।8।।

ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा।।9।।

ओ३म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् स्वाहा।।10।।

स्विष्टकृदाहुति मन्त्र
प्रस्तुत मन्त्र का उच्चारण करके भात/मिष्ठान आदि से आहुति प्रदान करें।
ओ३म् यदस्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम्। अग्निष्टत्स्विष्ट-कृद्विद्यात्सर्वं स्विष्टं सुहुतं करोतु मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्चित्ताहुतीनां कामानां समर्द्धयित्रे सर्वान्नः कामान्त्समर्द्धय स्वाहा। इदमग्नये स्विष्टकृते इदन्न मम।

प्राजापत्याहुति मन्त्र
ओ३म् प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये-इदन्न मम।।
इस मन्त्र के प्रजापतये भाग को मन में बोलकर घृत की एक आहुति देखें।

पूर्णआहुति मन्त्र
प्रस्तुत मन्त्र से घी तथा सामग्री की तीन आहुतियाँ प्रदान करें।
ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।।

सर्वकुशल प्रार्थना
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्।।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

दिव्य प्रार्थना
घृत पात्र से थोड़ा घृत हाथों में लगाकर हाथों को यज्ञाग्नि की ओर करके निम्न मन्त्रों से प्रार्थना करें:
ओ३म् तेजोऽसि तेजोमयि धेहि। ओ३म् वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि।।
ओ३म् बलमसि बलं मयि धेहि। ओ३म् ओजोऽस्योजोमयि धेहि।।
ओ३म् मन्युरसि मन्युं मयि धेहि। ओ३म् सहोऽसि सहो मयि धेहि।।

यज्ञ प्रार्थना-1
सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे न कोय।
यह अभिलाषा हम सबकी, भगवन्! पूरी होय।।१।।

विद्या-बुद्धि तेज बल, सबके भीतर होय।
दूध-पूत धन-धान्य से, वंचित रहे न कोय।।२।।

आपकी भक्ति प्रेम से, मन होवे भरपूर।
राग-द्वेष से चित्त मेरा, कोसों भागे दूर।।३।।

मिले भरोसा आपका, हमें सदा जगदीश।
आशा तेरे धाम की, बनी रहे मम ईश।।4।।

पाप से हमें बचाइये, करके दया दयाल।
अपना भक्त बनाकर, सबको करो निहाल।।5।।

दिल में दया उदारता, मन में प्रेम-अपार।
हृदय में धीरज वीरता, सबको दो करतार।।६।।

नारायण तुम आप हो, पाप के मोचन हार।
क्षमा करो अपराध सब, कर दो भव से पार।।७।।

हाथ जोड़ विनती करुँ, सुनिए कृपानिधान।
साधु-संगत सुख दीजिए, दया नम्रता दान।।८।।

शान्ति पाठ
ओ३म् द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्ति रोषधयः शान्तिः ।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वö शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।।

।। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

अन्य:-  यज्ञ-प्रार्थना-2

ऊपर को उठ उठकर अग्नि करती हमें इशारा ।
जीवन में उफपर को उठना है कत्र्तव्य हमारा ।।
उद्बुध होते देख अग्नि को, हम भी उद्बुध होवे ।
अपनी जीवन ज्योति जलाकर, अन्धकार को खोवे ।।
ऐसा जीवन होवें जिनका, वही सभी को प्यारा ।
जीवन में ऊपर को उठना………..
अग्नि में जो चीज पड़े, जग में सुगन्धि पफैलावे ।
हम भी दुर्गुण दूर हटा, जीवन में सद्गुण लावे ।
जीवन दिव्य सुगन्धित जिसका, वही प्रभु को प्यारा ।।
जीवन में ऊपर को उठना………..
जीवन भी वह क्या जीना है, अपने लिये जो जीता ।
जीवन सफल उसी का होवे, परहित में जो जीता ।
परहित जीना परहित मरना, यही है धर्म हमारा ।।
जीवन में ऊपर को उठना………..

विश्व-कल्याण यज्ञ से-3

होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से।
जल्दी प्रसन्न होते हैं, भगवान् यज्ञ से।।
ऋषियों ने ऊँचा माना है स्थान यज्ञ का।
भगवान् का यह यज्ञ है भगवान् यज्ञ का ।।
पाता है देवलोक को इन्सान यज्ञ से ।।
होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से।
जो कुछ भी डालो यज्ञ में खाते हैं अग्निदेव।
बादल बनाकर पानी बरसातें हैं अग्निदेव।।
पैदा अनाज करते हैं भगवान् यज्ञ से।।
होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से।
होता है कन्या-दान भी, हाँ इसके सामने।
शक्ति व तेज है भरा इसके शुभ नाम में।।
पूजा है इसको कृष्ण ने, भगवान् राम ने ।
मिलती है शक्ति, कीर्ति, सन्तान यज्ञ से।।
होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से।
इसका पुजारी जो हो, पराजित न हो कभी।
दुःख और भय से डरने की आदत न हो कभी।।
होती हैं सारी मुश्किलें आसान यज्ञ से।।
होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से।
चाहे अमीर हो कोई, चाहे गरीब है।
जो यज्ञ नित्य करता है वह खुशनसीब है।।
उपकारी मनुष्य बनता है महान् यज्ञ से ।।
होता है सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से।

करके ये यज्ञ मेरा-4

करके ये यज्ञ मेरा, सौभाग्य खुल गया है।
जीवन की हर घड़ी में, आनन्द घुल गया है।।
करके ये……………
पाया है मैंने सब वो, चाहते हैं जिसको सारे।
आरोग्य शान्ति मन की, है मुझको बहुत प्यारे।
बोला जो मैंने स्वाहा, हर पाप धुल गया है।।
जीवन की हर………..
दुर्भाव-दुर्गुणों से, मैंने है मुक्ति पाई।
वेदों की वाणी सुनकर, जीने की युक्ति आई।
ऐसी है यज्ञ नौका, तर सारा कुल गया है।।
जीवन की हर…………..
करते हैं नित्य यज्ञ, क्योंकि ये धरम हमारा।
दाता ने जो दिया है, अर्पित उसी को सारा।
कुछ माँगने से पहले, सब कुछ ही मिल गया है।।
जीवन की हर…………..
करके ये यज्ञ……………।