हविर्द्रव्याें की मात्राएँ
मोहनभोग (स्थालीपाक)
‘होम के सब द्रव्यों को यथावत् अवश्य शुद्ध कर लेना चाहिए,
अर्थात् सबको यथावत् शोध-
छान देख-भाल सुधार कर, सब द्रव्यों
को यथायोग्य मिला के पाक करना। जैसे कि सेरभर घी
के मोहनभोग
में रत्ती-भर कस्तूरी, मासेभर केसर, दो मासे जायफल-जावित्राी,
सेरभर
मीठा, सब डालकर मोहनभोग बनाना। इसी प्रकार अन्य मीठा भात,
खीर, मोदक आदि
होम के लिए बनावें।’
शोधित घृत एवं आहुति-परिमाणः-
‘घृत को गर्म कर छान लेवे और एक सेर घी में एक रत्ती
कस्तूरी, एक माशा केशर पीस के
मिलाकर रख छोड़ें। घी के पात्र
में एक छटांक वा अधिक जितना सामथ्य्र हो उतने शोधे हुए
घी को
निकालकर अग्नि में तपा के सामने रख लेवें।
उपरि लिखित घृतादि जो कि उष्ण कर
छान, पूर्वाेक्त सुगन्ध्यादि
पदार्थ मिलाकर पात्रों में रखा हो, कम से कम 6 मासाभर
घृत व
अन्य मोहनभोगादि जो कुछ सामग्री हो अधिक से अधिक छटांकभर
की आहुति
देवें।1(संस्कारविधि सामान्य प्रकरण, स्वामी
दयानन्द सरस्वती, पृष्ठ- 37)
यज्ञमीमांसाकार ने कुछ पूर्वाचार्यों (आनंद रामायण, त्रिकारिका,
शांतिरत्नकारों) के
उद्धरण पूर्वक यज्ञसामग्री की मात्राएँ अनेक विकल्पाें
के साथ लिखी हैं। यथा-
तिलार्धं तण्डुला देयास्तण्डुलार्धं यवास्तथा।
यवार्धंं शर्कराः प्रोत्का:
सर्वार्धं च घृतं स्मृतम्।।2(यज्ञ
मीमांसा, पं. वेणीराम शर्मा गौड़, पृष्ठ- 270)
जितनी मात्रा में तिल हो उससे आधा भाग चावल मिलायें, चावल
से आधा जौ, जौ से आधा शक्कर
और इन सबका आधा भाग घृत
मिलायें। अथवा
तिलास्तु द्विगुणाः प्रोत्का यवेभ्यश्चैव सर्वदा।
अन्ये सौगन्धिका स्निग्धा
गुग्गुलादि यवः समाः।।1(यज्ञ
मीमांसा पृष्ठ- 271)
जौ की अपेक्षा तिल को द्विगुणित रखना चाहिए और अन्य सुगन्ध्ति
गुग्गल आदि द्रव्याें
को जौ के बराबर ही रखना चाहिए। अथवा
पंचभागास्तिलाः प्रोत्कास्त्रिभागस्तण्डुलास्तथा।
द्वौ भागौ यवस्योक्तौ
भागेकं गुग्गुलादिकम्।।2(यज्ञ
मीमांसा पृष्ठ- 271)
5 भाग-तिल, 3 भाग-चावल, 2 भाग- जौ तथा एक भाग में
गुग्गल इत्यादि सुगन्ध्ति द्रव्य
मिलाना उत्तम है। अथवा
वेदभागास्तिलानां स्युः भागोनास्तु यवाः स्मृताः।
द्विभागं च घृतं प्रोत्कं
भागमेकं च तण्डुलाः।।3(यज्ञ
मीमांसा पृष्ठ- 105)
4 भाग तिल, 3 भाग जौ, 2 भाग घृत और 1 भाग चावल का
शाकल्य उत्तम होता है।
अनुपात
में व्यतिक्रम होने से यज्ञ के प्रभाव में परिवर्तन हो जाने
का भी संकेत किया गया
है। यथा-
आयुः क्षयं यवाधिक्यं यवसाम्यं धनक्षयम्।
सर्वकामसमृद्धर्थं तिलाधिक्यं सदैव
हि।।4(यज्ञ मीमांसा पृष्ठ-
271)
तिल से अधिक जौ होने से आयु का क्षरण होता है, तिल के
बराबर ही जौ होने से धन का क्षय
होता है इसलिये सभी कामनाओं
की सिध्दि के लिये तिल ही अधिक होना चाहिए।
तिलाः कृष्णा घृताभ्यक्ता: किचिंद्यव समन्विताः।
काले तिल को घृत मिलाकर थोड़े से जौ युक्त हविर्द्रव्य बनायें।
कई विद्वानों ने हवन
सामग्री के अनेक प्रयोग लिखे हैं। ऋतु अनुकूल
सामग्री बनाने के भी प्रयोग लिखे गये
हैं। अलग अलग रोगों के लिये
भी औषधियाें के नाम विद्यमान है। आर्य परिव्राजक ने सभी
ऋतुओं
के लिये उपयोगी हवन सामग्री का समात्रक विवरण दिया है। यथा-
सफेद चन्दन का
चूरा 24 भाग, अगर 15 भाग, तगर 15 भाग,
लौंग 15 भाग, गूगल 30 भाग, जायफल 07 भाग,
जावित्राी 07 भाग,
दालचीनी 15 भाग, तालीसपत्र 15 भाग, पनड़ी 15 भाग, बड़ी इलायची
15
भाग, नारियल गोला 30 भाग, छुहारा 30 भाग, नागरमोथा 15 भाग,
गुलाब के फूल 30 भाग,
इन्द्र जौ 15 भाग, कपूर कचरी 15 भाग,
आंवला 15 भाग, किशमिश 30 भाग, बालछड़ 30 भाग,
नागकेसर 07
भाग, तुम्बरु 30 भाग, सुपारी 15 भाग, नीम के पत्ते 15 भाग, बूरा
व
खाण्ड 60 भाग, घी 60 भाग तथा अन्य 45 भाग मिलायें।
वर्षा- यज्ञ की सामग्री का भी विवरण दिया गया है- आंवला 1
किलो, छड़ेला 5 किलो,
वायविडडंग् 2 किलो, उड़द 2 किलो, भात 5
किलो, सरसों के पत्ते 3 किलो, सरसों के बीज 1
किलो, पीली सरसों
3 किलो, दारुहल्दी 1 किलो, निर्मली 1 किलो, तिल 12 किलो, जौ
6
किलो, चावल 10 किलो, चीनी 5 किलो, चन्दनचूरा सफेद 2 किलो,
जटामांसी 1 किलो,
सुगन्ध्बाला 2 किलो, कपूर 500 ग्राम, धूप की
लकडी 1 किलो, छड़छड़ी 1 किलो, गोला 500
ग्राम, नागरमोथा 2
किलो, किशमिश 500 ग्राम, छुहारा 1 किलो, मूंगपफली 1 किलो,
चने
का सत्तू 6 किलो, गुड़ 6 किलो, गुग्गल एवं जायफल 6 किलो, गाय
का दूध 6 किलो,
दालचीनी 500 ग्राम, खस 500 ग्राम, शतावर 500
ग्राम, लौंग 500 ग्राम, मंजीठ 500
ग्राम, पद्माख 500 ग्राम आदि हव्य
वृष्टियज्ञ के लिये बनाना चाहिए।1(अध्यात्म सुधा-4, स्वामी विज्ञानानन्द, पृष्ठ- 308,
310)
अन्य विद्वानों ने प्रदूषण निवारक सामग्री भी लिखी है। यथा-
गुग्गल 500 ग्राम, राल
200 ग्राम, गिलोय 200 ग्राम, नागरमोथा 200
ग्राम, बावची 100 ग्राम, नेगड़ 100 ग्राम,
जौ 100 ग्राम, गुड़ या चीनी
200 ग्राम, लोबान 200 ग्राम, बेल की गिरी 100
ग्राम।2(यज्ञ महाविज्ञान, पं. वीरसेन वेदश्रमी,
पृष्ठ- 34, 132)