स्वामी दयानन्द जी की दृष्टि में ’यज्ञ‘

वेदभाष्यकार स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने वेदमत्रों का भावार्थ लिखा है-

(1)’विद्वानों को चाहिए कि इस संसार के सुख के लिये यज्ञ से शोधे हुए जल से और वनों के रखने से अति उष्णता (खुश्की) दूर करें। अच्छे बनाये हुए अन्न से बल उत्पन्न करें। यज्ञ के आचरण से तीन प्रकार के दुःख (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) को निवार के सुख को उन्नति देवें।‘
(ऋ.-1.116.8)

(2);’यज्ञ के अनुष्ठान से वायु और जल की उत्तम शुद्धि तथा पुष्टि होती है, वह दूसरे उपाय से कभी नहीं हो सकती। जो मनुष्य यज्ञादि से जलादि पदार्थ़ों को शुद्ध करके सेवन करते हैं, उन पर सुखरुप अमृत की वर्षा निरंतर होती है।
(यजु.-1.12, 36.12)

(3)जो होत्र करने के द्रव्य अग्नि में डाले जाते हैं, उनसे धुआं और भाप उत्पन्न होते हैं, वे परमाणु मेघमण्डल में वायु के आधार पर रहते हैं, फिर वे परस्पर बादल होके उनसे वृष्टि, वृष्टि से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से धातु, धातुओं से शरीर बनता है। –
(ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका वेद विषयक विचार)

(4)वे ही मनुष्य उत्तम दाता हैं, जो यज्ञ, जंगलों की रक्षा और जलाशयों के निर्माण से बहुत वर्षाओं को कराते हैं।

(5)जो वृष्टि कराने वाले वायु और अग्नि आदि को विशेष करके जानते हैं, वे इनको वृष्टि करने के लिए प्रेरणा करने में समर्थ होते हैं।

(6);मनुष्य लोगों को चाहिए कि जिस मेघ से सबका पालन होता है, उसकी वृद्धि, वृक्षों के लगाने, वनों की रक्षा करने और होत्र करने से सिद्ध करें, जिससे सबका पालन सुख से होवें।

(7);वर्षा का हेतु जो यज्ञ है, उसका अनुष्ठान करके नाना प्रकार के सुख उत्पन्न करने चाहिए। क्योंकि यज्ञ के करने से वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा संसार में अत्यन्त सुख सिद्ध होता है।

(8);मनुष्य को अपने विज्ञान से अच्छी प्रकार पदार्थ़ों को इकट्ठा करके उससे यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए, जो कि वृष्टि को बढ़ाने वाला है।

(9);ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठानों में किये हुए हवन आदि से पवन और वर्षाजल की शुद्धि होती है, उससे शुद्ध जल वर्षने से भूमि पर जो उत्पन्न हुए जीव हैं, वे तृप्त होते हैं।

(10);जब विद्वान् जन सुगन्धि आदि पदार्थ़ों के होत्र से जलों की शुद्धि कराते हैं, तब प्रशंसा को प्राप्त होते हैं। ;

यज्ञ की परिभाषा

यज्ञ उसको कहते हैं कि जिसमें

(1);विद्वानों का सत्कार हो

(2)कोई हिंसा न हो

(3);विद्यादि शुभगुणों का दान

(4);अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टिजल, ओषधि की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है।

(5);’जो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेधपर्यन्त व जो शिल्पव्यवहार और पदार्थविज्ञान है, जोकि जगत् के उपकार के लिए किया जाता है, उसको यज्ञ कहते हैं।;(आर्योद्देश्यरत्नमाला)

समिधा-चयन

पलाश, शमी, पीपल, बड़, गूलर, आम्र, बिल्व, प्लक्ष आदि की समिधा वेदी के प्रमाणे छोटी-छोटी कटवा लेवें। परन्तु ये समिधा कीड़ा लगी, मलिनदेशोत्पन्न और अपवित्र पदार्थ आदि से दूषित न हों। अच्छे प्रकार देख लेवें और चारों ओर बराबर कर बीच में चुनें।

यज्ञपात्र

अग्निहोत्र के लिए सोना, चॉँदी, तांबा, लोहा वा मिट्टी का कुण्ड बनवा लेना चाहिए, जिसका परिमाण सोलह अंगुल चौड़ा, सोलह अंगुल गहरा और उसका तल चार अंगुल का लम्बा-चौड़ा रहे।

अग्निहोत्र के लिए ताम्र वा मिट्टी की वेदि बनाके काष्ठ, चाँदी वा सोने का चमसा अर्थात् अग्नि में पदार्थ डालने का पात्र अंगुष्ठ के प्रमाण से लम्बा-चौड़ा आचमनी के समान बनवा लेवें। सो भी सोना, चाँदी व पलाशादि लकड़ी का हो। एक आज्यस्थाली;अर्थात् घृतादि सामग्री रखने का पात्र सोना, चाँदी वा पूर्वोक्त लकड़ी का बनवा लेवें। एक;जल का पात्र;तथा एक चिमटा 

’एक प्रोक्षणीपात्र,;दूसरा प्रणीतापात्र&;और एक आज्यस्थाली;अर्थात् घृत रखने का पात्र और&;चमसा;सोने, चाँदी वा काष्ठ का बनवाके प्रणीता और प्रोक्षणी में जल तथा घृतपात्र में घृत रखके घृत को तपा लेवें। प्रणीता जल रखने और प्रोक्षणी इसलिए है कि उससे हाथ धोने को जल लेना सुगम है।

संस्कारविधि के सामान्य प्रकरण में लिखा है, कि ’विशेषकर चाँदी अथवा काष्ठ के पात्र होने चाहिए।‘ वहाँ अनेक पात्रों के लक्षण तथा चित्र भी दिये हैं, जो पात्र श्रौत-यज्ञों में प्रयुक्त होते हैं।

गृहस्थी के लिए द्विकाल हवन-विधान

अग्निहोत्रं च जुहुयादाद्यन्ते द्युनिशो सदा।
(मनु.4.25)

’जैसे सायं-प्रातः दोनों सन्धि-वेलाओं में सन्ध्योपासना करें, इसी प्रकार दोनों त्री-पुरुष अग्निहोत्र भी दोनों समय में नित्य किया करें।‘ इस पर स्वामी जी ने स्वयं नीचे यह टिप्पणी दी है-

’िकसी विशेष कारण से त्री वा पुरुष अग्निहोत्र के समय दोनों साथ उपस्थित न हो सकें, तो एक ही त्री या पुरुष, दोनों का कृत्य कर लेवें।

अग्निहोत्र-िवधि

स्वामी जी के जिन ग्रन्थों में अग्निहोत्र का निरूपण मिलता है, वे रचनाकाल की दृष्टि से क्रमशः ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (संवत् 1933), पञ्चमहायज्ञविधि (संवत् 1934), सत्यार्थप्रकाश (संवत् 1939) तथा संस्कारविधि (संवत् 1940) हैं। इनमें से प्रथम तीन ग्रन्थों के अग्निहोत्र-प्रकरण में अग्न्याधान, समिधाधान, जलसेचन आदि के मत्रों का कोई उल्लेख नहीं है। यज्ञकुण्ड में अग्निप्रदीपन के पश्चात् होम के केवल ये मत्र लिखे हैं- प्रातःकाल के ’सूर्यो ज्योतिर्‘ आदि चार, सायंकाल के ’अग्निर् ज्यातिर्‘ आदि चार, उभयकाल के ’ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा‘ आदि चार, ’ओमापो ज्योती रसो‘ एक और अन्त में ’ओं सर्वं वै‘ आदि पूर्णाहुति एक। सत्यार्थप्रकाश तृतीय समुल्लास में केवल ’ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा‘ आदि चार मत्रों से होम करना लिखा है तथा यह निर्देश दिया है कि जो अधिक आहुति देना हो तो ’िवश्वानि देव‘ आदि मत्र से और गायत्री मत्र से आहुति देवें।

आजकल जिस अग्निहोत्र का प्रचलन है, वह संस्कारविधि के सामान्य प्रकरण और गृहाश्रम-प्रकरण का है। संस्कारविधि काल की दृष्टि से उक्त सब में अन्तिम ग्रन्थ होने के कारण, उसमें युक्तियुक्त विस्तृत विधि-िवधान होने के कारण तथा स्वयं स्वामी जी को अभिमत होने के कारण उसी में प्रतिपादित अग्निहोत्र ग्राह्य है। हमने भी प्रस्तुत पुस्तक में संस्कारविधि का ही अनुसरण किया है।

होम से उपकार-िवषयक प्रश्नोत्तर

प्रश्न – होम से क्या उपकार होता है?

उत्तर – सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।

प्रश्न -चन्दनादि घिसके किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं?

उत्तर -जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते, क्योंकि किसी भी द्रव्य का अभाव नहीं होता। जहाँ होम होता है, वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है, वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होके फैलके वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है और खिलाने-िपलाने से उसी एक व्यक्ति को सुख-िवशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धितादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है, उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है। परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खाएँ, तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके। इससे अच्छे पदार्थ खिलाना-िपलाना भी चाहिए। परन्तु उससे होम अधिक करना उचित है। इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है।

प्रश्न -जब ऐसा ही है तो केसर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा?

उत्तर -उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकालकर शुद्ध वायु का प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदन-शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थ़ों को छिन्न-िभन्न और हल्का करके बाहर निकालकर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।

यज्ञ के लाभ

स्वामी दयानन्द जी ने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के स्वकृत भाष्य में भी विशेषतः भावार्थ में यज्ञ एवं अग्निहोत्र के महत्त्व, लाभ आदि पर प्रकाश डाला है-

जब अग्नि में सुगन्धित आदि पदार्थ़ों का हवन होता हैं, तभी यह यज्ञ वायु आदि पदार्थ़ों को शुद्ध करके तथा शरीर और औषधि आदि पदार्थ़ों की रक्षा करके अनेक प्रकार के रसों को उत्पन्न करता है। उन शुद्ध पदार्थ़ों के भोग से प्राणियों के विद्या, ज्ञान और बल की वृद्धि भी होती है।

जो यज्ञ के धूम से शोधे हुए पवन है, वे अच्छे राज्य के करानेवाले होकर रोग आदि दोषों का नाश करते हैं और जो अशुद्ध (दुर्गन्ध) आदि दोषों से भरे हुए हैं, वे सुखों का नाश करते हैं। इससे मनुष्यों को चाहिए कि अग्नि में होम द्वारा वायु की शुद्धि से अनेक प्रकार के सुखों को सिद्ध करें।

यदि यजमान और यज्ञ करानेवाले विद्वान् हों तो सुशोधित द्रव्यों को अग्नि में होमें, तो क्या-क्या सुख प्राप्त न हो!

मनुष्यों को चाहिए कि वे आप्त-िवद्वानों के संग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि करने वाले यज्ञ का विस्तार करें।

जो यज्ञ से शुद्ध किये हुए अन्न, जल और पवन आदि पदार्थ हैं, वे सब की शुद्धि, बल, पराक्रम और दृढ़ दीर्घ आयु के लिए समर्थ होते हैं। इससे सब मनुष्यों को यज्ञकर्म का अनुष्ठान नित्य करना चाहिए।

मनुष्यों को इस प्रकार का यज्ञ सदैव करना चाहिए, जो पूर्ण श्री, संपूर्ण आयु, अन्नादि पदार्थ, रोगनाश और सब सुखों का विस्तार करता है। वह किसी को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

मनुष्य अग्नि में जो आहुति देते हैं, वह वायु के साथ मेघ- मण्डल में जाकर सूर्य से आकर्षित जल को शुद्ध करती है। फिर वहाँ से वह जल पृथिवी पर आकर औषधियों को पुष्ट करता है। वह उक्त आहुति वेदमत्रों से ही करनी चाहिए, जिससे उसका फल-ज्ञान होने पर नित्य श्रद्धा उत्पन्न हो।

होम-नामक यज्ञ वह है, जिसमें मांस, क्षार, अम्ल, तिक्त आदि गुणों से रहित, किन्तु सुगन्धि, पुष्ट, मिष्ट, रोगनाशक आदि गुणों से युक्त हवि हो।

जो मनुष्य यज्ञ से शुद्ध किये जल, औषधि, पवन, अन्न, पत्र, पुष्प, फल, रस, कन्द अर्थात् अरबी, आलू, कसेरू, रतालू, शकरकन्द आदि पदार्थ़ों का भोजन करते हैं, वे निरोग होकर बुद्धि, बल, आरोग्य और दीर्घायु वाले होते हैं।

मनुष्य नित्य सुगन्ध्यादि पदार्थ़ों को अग्नि में छोड़ अर्थात् हवन कर, पवन और सूर्य की किरणों द्वारा वनस्पति, औषधि, मूल, शाखा, पुष्प और फलादिकों में प्रवेश कराके सब पदार्थ़ों की शुद्धि कर आरोग्य की सिद्धि करें।

मनुष्यों को चाहिए कि जीवनपर्यन्त शरीर, प्राण, अन्तःकरण, दशों इन्द्रियाँ और जो सबसे उत्तम सामग्री हो उसको यज्ञ के लिए समर्पित करें, जिससे पापरहित कृतकृत्य होके परमात्मा को प्राप्त होकर इस जन्म और द्वितीय जन्म में सुख को प्राप्त होवें।

हे मनुष्यो! सब यज्ञों में अग्नि आदि को भी पशु जानो। प्राणी इन यज्ञों में मारने योग्य नहीं, न होमने योग्य हैं। जो ऐसा जानकर सुगन्ध्यादि द्रव्यों को सुंस्कृत करके अग्नि में होम करते हैं, उनके वे द्रव्य वायु और सूर्य को प्राप्त होकर वर्षा द्वारा वहाँ से लौटकर औषधि, प्राण, शरीर और बुद्धि को क्रमशः प्राप्त होकर सब प्राणियों को आनन्द देते हैं। इस यज्ञ-कर्म के करनेवाले पुण्य के महत्त्व से परमात्मा को प्राप्त होकर महिमान्वित होते हैं।

यज्ञ छौंकवत् उपकारी- ’जैसे दाल और शाक आदि में सुगन्ध द्रव्य और घी इन दोनों को चमचे में अग्नि पर तपाके उनमें छौंक देने से वे सुगन्धित हो जाते हैं, क्योंकि उस सुगन्धद्रव्य और घी के अणु उनको सुगन्धित करके दाल आदि पदार्थ़ों की पुष्टि और रुचि बढ़ानेवाले कर देते हैं, वैसे ही यज्ञ से जो भाप उठता है, वह भी वायु और वृष्टि के जल को निर्दोष और सुगन्धित करके सब जगत् को सुख करता है। इससे यह यज्ञ परोपकार के लिए ही होता है।‘

यज्ञ से प्रदूषण-िनवारण

वेदभाष्यकार स्वामी दयानन्द सरस्वती- ”हवन किया हुआ द्रव्य दुर्गन्धादि दोषों का निवारण कर सब दुःखों से रहित सुखों को सिद्ध करता है, जिससे दिन-रात सुख बढ़ता है। इसके बिना कोई प्राणी जीने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे इसकी शुद्धि के लिये नित्य यज्ञ करें।

अन्यत्र उन्होंने ब्राह्मणवाक्य – ”यज्ञो।़पि तस्यै जनतायै कल्पते यत्रैव विद्वान् होता भवति“ (ऋ.-1.34.8 का भावार्थ, ऐत.ब्रा.-1.2) के भाष्य में लिखा है कि ”जनता नाम मनुष्यों का जो समूह है, उसी के सुख के लिये यज्ञ होता है और संस्कार किये द्रव्यों का होम करने वाला जो विद्वान् मनुष्य है, वह भी आनन्द को प्राप्त होता है। क्योंकि जो मनुष्य जगत् का जितना उपकार करेगा, उतना ही ईश्वर की व्यवस्था से सुख प्राप्त होगा। इसलिये यज्ञ अनर्थ दोषों को हटाकर जगत् में आनन्द को बढ़ाता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका- पृष्ठ 46)

आर्यवर शिरोमणि महाशय, ऋषि-महर्षि, राजे-महाराजे लोग, बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित एवं सुखों से पूरित था। अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। (स.प्र.तृतीय समुल्लास पृष्ठ 45)

जो यज्ञ के धूम से शोधे हुए पवन हैं, वे अच्छे राज्य के कराने वाले होकर रोग आदि दोषों का नाश करते हैं और जो दुर्गन्ध आदि दोषों से भरे हुए अशुद्ध वायु हैं, वे सुखों का नाश करते हैं। इससे सब मनुष्यों को चाहिए कि अग्नि में होम द्वारा वायु की शुद्धि से अनेक प्रकार के सुखों को सिद्ध करें। (ऋ.-1.19.5 भाषाभाष्य, पृष्ठ- 93)

जो मनुष्य यथाविधि अग्निहोत्र आदि यज्ञों को करते हैं, वे पवन आदि पदार्थ़ों के शोधने हारे होकर सबका हित करने वाले होते हैं।
(यजु.-22.26, 28.30 भाषाभाष्य, पृष्ठ 835-837-839)

मनुष्य नित्य सुगन्ध्यादि पदार्थ़ों को अग्नि में छोड़ हवन कर पवन और सूर्य की किरणों द्वारा वनस्पति, औषधि, मूल, शाखा, पुष्प, फलादि में प्रवेश कराके सब पदार्थ़ों की शुद्धि कर आरोग्य की सिद्धि करें।

मनुष्यों को चाहिए कि प्राण आदि की शुद्धि के लिये अग्नि में पुष्टि करने वाले पदार्थ का होम करें।

जो अग्नि में सुगन्धित आदि पदार्थ़ों को होमते हैं, वे रोग और कष्ट के शब्दों से पीड्यमान नहीं होते।
(ऋग्वेद-10.136.3)

वृष्टियज्ञ सम्बन्धी पत्र

पहला पत्र– जो 10-15 अगस्त 1883 को उदयपुर के महाराजा सज्जनसिंह को लिखा- ’आरोग्य और अधिक वर्षा के लिए एक वर्ष में 10000/- रुपये के घृतादि का जिस रीति से होत्र हुआ था, उसी रीति से प्रतिवर्ष कराइए। चारों वेदों के ब्राह्मण का वरणकर एक सुपरीक्षित धार्मिक पुरुष उन पर रख के होत्र कराइयेगा।

दूसरा पत्र– 8 सितम्बर 1883 को श्रीमद्राज राजेश्वर, जोधपुर नरेश को लिखा गया- वर्षा प्रायः न्यून होती है, इसके लिए 10000/- रुपये का घृतादि का नित्यप्रति और वर्षाकाल में चार महीने तक अधिक होत्र कराइएगा। वैसा प्रतिवर्ष होता रहे तो सम्भव है कि देश में रोग न्यून और वर्षा अधिक हुआ करे।
-(साभार दयानन्द के पत्र एवं विज्ञापन द्वारा रामलाल कपूर ट्रस्ट)

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद भाष्य तथा स्वरचित अन्य ग्रन्थों में यज्ञ के चार गुणयुक्त हविर्द्रव्य बनानें का उल्लेख किया है।

यथा- अग्निहोत्रमारभ्याश्वमेधपर्यन्तेषु यज्ञेषु सुगन्धिमिष्टपुष्ट- रोगनाशक-गुणैर्युक्तस्य सम्यक् संस्कारेण शोधितस्य द्रव्यस्य वायुवृष्टिजलशुद्धिकरणार्थमग्नौ होमो क्रियते, स तद्धारा सर्वजगत् सुखकार्येव भवति।

अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त जो कर्मकाण्ड हैं, उसमें चार प्रकार के गुणयुक्त द्रव्यों का होम करना होता है।

वे निम्न हैं- ’प्रथम सुगन्धित‘ कस्तूरी, केशर, अगर, तगर, श्वेत चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री आदि। ’िद्वतीय पुष्टिकारक‘ घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि।;’तीसरे मिष्ट‘;शक्कर, सहत (शहद), छुवारे, दाख आदि। ’चौथे रोगनाशक‘;सोमलता अर्थात् गिलोय आदि औषधियाँ।

’केशर-कस्तूरी आदि;सुगन्ध,;घृत-दुग्ध आदि पुष्ट, गुड़-शर्करा आदि;मिष्ट;तथा सोमलतादि औषधि रोगनाशक– ये जो चार प्रकार के;बुद्धिवृद्धि, शूरता, धीरता, बल और आरोग्य करने वाले गुणों से युक्त पदार्थ हैं, उनका होम करने से पवन और वर्षाजल की शुद्धि करके शुद्ध पवन और जल के योग से पृथिवी के सब पदार्थ़ों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उससे सब जीवों को परम सुख होता है। इस कारण उस अग्निहोत्र-कर्म करनेवाले मनुष्यों को भी जीवों के उपकार करने से अत्यन्त सुख का लाभ होता है तथा ईश्वर भी इन मनुष्यों पर प्रसन्न होता है। ऐसे प्रयोजनों के अर्थ अग्निहोत्रादि का करना अत्यन्त उचित है।
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ 44, यजु.भाष्य, 3.1, 19.21, संस्कारविधि सामान्य प्रकरण पृष्ठ 37)