banner

यज्ञ के प्रकार

प्राच्य वैदिक वाघ्मय-ग्रंथों में यज्ञों के विभिन्न नाम व प्रकार मिलते हैं। जैसे अथर्ववेद में-

राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वरः।
अर्काश्वमेधवुच्छिष्टे जीवबर्हिमदिन्तमः।।
अग्न्याध्यमथो दीक्षा कामप्रश्छन्दसा सह।
उत्सन्ना यज्ञाः सत्राण्युच्छिष्टेध् समाहिताः।।
अग्निहोत्रां च श्रद्धा च वषट्कारो व्रतं तपः।
दक्षिणेष्टं पूर्तं चोच्छिष्टेsधिसमाहिताः।।
चतुर्होतार आप्रियश्चातुर्मास्यानि नीविदः।
उच्छिष्टे यज्ञा होत्राः पशुबन्धस्तदिष्टयः।। ( अथर्ववेद- 11.7.7-9,19 )

मनुष्यों को परमेश्वर की आराध्ना करते हुए राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अश्वमेध्, अग्न्याधन, अग्निहोत्रा, चातुर्मास्य एवं पशुबन्ध् आदि इन यज्ञों से समस्त प्राणियों को आनन्द देना चाहिए।

ऐतरेय ब्राह्मण एवं आरण्यक में पांच प्रकार के यज्ञ बताये गये हैं-
स एष यज्ञः पच्विचध्ः।
अग्निहोत्रां दर्शपूर्णमासौ चातुर्मास्यानि पशुः सोमः।। ( ऐतरेय ब्राह्मण- 2.3, ऐतरेय आरण्यक- 2.3.3 )

गौतम र्ध्मसूत्रा में तीन प्रकार की यज्ञसंस्थाओं के 21 यज्ञभेदों का उल्लेख है। यथा-

अष्टका पार्वणः श्राद्धं याग्रहायनी चैत्रपाश्वयजीती सप्त पाकयज्ञसंस्था:। अग्न्याध्य अग्निहोत्र दर्शपूर्णमासो आग्रयण चातुर्मास्यानि निरुढ़पशुबन्ध्ः सौत्रामणि इति सप्तहविर्यज्ञसंस्थाः। अग्निष्टोम अत्यग्निष्टोमोक्थ्यः षोडशी वाजपेयोतिरात्रोsप्तोर्यामेति सप्तसोमसंस्थाः।। ( गौतम धर्मसूत्राणि- 8.19-21 )

सात पाकयज्ञः- पार्वण, अष्टका, मासिकश्राद्ध, श्रवणा आश्वयुजी और चैत्री।

सात हविर्यज्ञः- अग्न्याध्य, अग्निहोत्रा, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरुढ़पशुबन्ध् और सौत्रामणि।

सात सोमयज्ञः- अग्निस्टोम, अत्यग्निष्टम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्रा और आप्तोर्याम।

महर्षि कात्यायन ने कात्यायन श्रौतसूत्र के विभिन्न अध्यायों में कुछ अन्य भेदों का वर्णन किया है। वे हैं- दाक्षायण, एकाह, द्वादशाह, अग्निचयन, अश्वमेध्, अभिचार, सत्रा, सोमयाग, गवामयन, राजसूय, पुरुषमेध्, प्रायश्चित तथा प्रवार्य। ( कात्यायान श्रौतसूत्रा अध्याय- 4.26 )

महर्षि मनु ने आवश्यक दैनिक कर्तव्यों को पांच महायज्ञ कहा है-
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।
होमो देवो बलिर्धैतो नृयज्ञोsतिथिपूजनम्।। ( मनुस्मृति- 3.70 )

स्वाध्याय ब्रह्मयज्ञ है, तर्पण- पितृयज्ञ, हवन-देवयज्ञ, प्राणी-सेवा बलिवैश्वदेवयज्ञ एवं अतिथिसत्कार- नृयज्ञ है।

श्रीमद्‍भगवद्‍गीता में पांच अन्य यज्ञों का उल्लेख है। यथा-
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।। ( श्रीमद्‍भगवद्‍गीता- 4.28 )

द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ तथा ज्ञानयज्ञ।
उक्त ग्रन्थ में ही प्रभाव की दृष्टि से यज्ञ के सात्विक, राजसिक एवं तामसिक भेद किये गये हैं। यथा-

सात्विक यज्ञः- अपफलाकाडीक्षभिर्यज्ञो विध्दिृष्टो य इज्यते। यष्टव्यमेवेति मनः समाधय स सात्विकः।।
जो यज्ञ शास्त्रविधि से नियत किया हुआ है तथा करना ही कर्तव्य है ऐसे मन को समाधन करके पफल को न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह सात्विक यज्ञ है।

राजसिक यज्ञः- अभिसंधय तु पफलं दम्भार्थमपि चैव यत्। इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।
जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिये अथवा पफल का भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उसे ‘राजसिक यज्ञ’ कहते हैं।

तामसिक यज्ञः- विध्हिीनमसृष्तान्न मन्त्राहीनमदक्षिणम्। श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। ( श्रीमद्‍भगवद्‍गीता- 17.11-13 )
शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये हुए को तामस यज्ञ कहते हैं।

द्रव्ययज्ञ, श्रौत और स्मार्त भेद से अनेक प्रकार के हैं। जिन यज्ञों का श्रुति में साक्षात् उल्लेख मिलता है, वे श्रौतयज्ञ कहलाते हैं। जिन यज्ञों का ऋषिलोग स्मृतियों में विधन करते हैं, वे स्मार्त कहलाते हैं।
इन दोनों प्रकार के यज्ञों के तीन भेद है- नैत्यिक, नैमित्तिक, काम्य-
ये तीन भेद हैं-

नैत्यिक यज्ञ- जिनको प्रतिदिन आवश्यक रूप से करना अनिवार्य है। यथा- महर्षि मनु प्रोत्त पच्महायज्ञ

नैमित्तिक यज्ञ- जो किसी निमित्त से किये जायें वे नैमित्तिक यज्ञ कहे जाते हैं। यथा- षोडश संस्कार, प्राकृतिक संयोग वा उत्पात के कारण किये जाने वाले यज्ञ।

काम्य यज्ञ- जो किसी कामना विशेष से किये जायें। यथा- वर्षेष्टि, पुत्रोष्टि, रोगनिवारण आदि यज्ञ।

इस प्रकार 7 हविर्यज्ञ और 7 सोमयज्ञ श्रौतयज्ञ कहे जाते हैं एवं 7 पाकयज्ञों को स्मार्तयज्ञ कहते हैं। ( श्रौतयज्ञों का संक्षिप्त परिचय, युध्ष्ठििर मीमांसक पृष्ठ- 7 )