यज्ञ की परिभाषा-पर्यायवाची-प्रकार
येन सदनुष्ठानेन सम्पूर्णविश्वं कल्याणं भवेदाध्यात्मिकाधिदैविकाधिभौतिकतापत्रयोन्मूलनं सुकरं स्यात् तत् यज्ञपदाभिधेयम्।
जिस सदनुष्ठान से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो, तथा आध्यात्मिक-आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों तापों का उन्मूलन सरल हो जाये, उसे यज्ञ कहते हैं।
येन सदनुष्ठानेन स्वर्गादिप्राप्तिः सुलभा: स्यात् तत् यज्ञपदाभिधेयम्।
जिस श्रेष्ठ अनुष्ठान से सुखविशेष की प्राप्ति सहज हो जाये, वह यज्ञ है।
इज्यन्ते (पूज्यन्ते) देवा अनेनेति यज्ञः।
जिससे देवगण पूजे जाते हैं, वह यज्ञ है।
इज्यन्ते सम्पूजिताः तृप्तिमासाद्यन्ते देवा अत्रेति यज्ञः।
जिस कार्य में देवगण पूजित होकर तृप्त हों, उसे यज्ञ कहते हैं।
येन सदनुष्ठानेन इन्द्रप्रभृतयो देवाः सुप्रसन्नाः सुवृष्टिं कुर्युस्तत् यज्ञपदाभिधेयम्।
जिस उत्तम अनुष्ठान से सूर्यादि देवगण अनुकूल वृष्टि करें, उसे यज्ञ कहते हैं।
वेदमन्त्रैर्देवतामुद्दिश्य द्रव्यस्य दानं यागः।
वेदमंत्रों के द्वारा देवताओं को लक्ष्य कर द्रव्य का दान यज्ञ है।
वैदिक कोश निघण्टु में यज्ञ के 15 पर्यायों का उल्लेख है- यज्ञः, वेनः, अध्वरः, मेधः, विदथः, नार्यः, सवनम्, होत्रा, इष्टिः, देवताता, मखः, विष्णुः, इन्दुः, प्रजापतिः, घर्म इति पंचदश यज्ञनामानि।
सात पाकयज्ञ- औपसन, वैश्वदेव, पार्वण, अष्टका, मासिक श्राद्ध, श्रवणा और शूलगव।
सात हविर्यज्ञ- अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रयण, चातुर्मास्य, निरुढ़पशुबंध, सौत्रामणी और पितृयज्ञ ।
सात सोमयज्ञ- अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्यमि।
नैत्यिक यज्ञ- जिनको प्रतिदिन आवश्यक रूप से करना अनिवार्य है। यथा– महर्षि मनु प्रोक्त ‘पंचमहायज्ञ’।
नैमित्तिक यज्ञ- जो किसी निमित्त से किये जायें, वे नैमित्तिक यज्ञ कहे जाते हैं। यथा– षोडश संस्कार, प्राकृतिक संयोग वा उत्पात के कारण किये जाने वाले यज्ञ। (प्रदूषण निवारक यज्ञों को नैमित्तिक कह सकते हैं)।
काम्य यज्ञ- जो किसी कामना विशेष से किये जायें। यथा– वर्षेष्टि, पुत्रेष्टि एवं चिकित्सा विशेष में जो यज्ञ किये जाते है।
सात्विक यज्ञ- अफलाकाड्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते। यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्विकः।। – गीता17.11
जो शास्त्रविधि से नियत किया हुआ तथा यज्ञ करना ही कत्र्तव्य है इस प्रकार मन को समाधान करके, फल को न चाहने वाले पुरुषों द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ सात्विक है।
राजसिक यज्ञ- अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्। इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्।। – गीता17.12
जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिये अथवा फल को भी उद्देश्य रखकर किया जाता है, उसे राजसिक यज्ञ कहते हैं।
तामसिक यज्ञ- विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्। श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। – गीता17.11
शास्त्रविधि से हीन, अन्नादान से रहित, बिना मंत्रों के, बिना दक्षिणा के, बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते है।