यज्ञ शब्द के अर्थ
वैदिक कोश ‘निघण्टु’ में यज्ञ के 15 पर्यायों का उल्लेख है-
यज्ञः, वेनः, अध्वरः, मेध्ः, विदथः, नार्यः, सवनम्, होत्रा, इष्टिः, देवताता, मखः, विष्णुः, इन्दुः, प्रजापतिः, घर्म इति पञ्चदश यज्ञनामानि। ( निघण्टु- 3.17 )
अमरकोषकार ने सवः, यागः, सप्ततन्तुः एवं क्रतु को भी यज्ञ के पर्याय माना है। ( अमरकोष- 2.7.3 )
यज्ञः
वेदव्याख्याकार आचार्य यास्क ने ‘यज्ञ’ शब्द की निरुत्तिफ कई दृष्टियों से की है। यथा-
प्रख्यातं यजतिकर्म इति नैरुत्तफाः– निरुक्तकारों के मत में यज्ञ शब्द यजनार्थक है।
याज्चो भवतीति वा- अथवा यह किसी फल विशेष की याचना के लिये किया जाता है, यह यज्ञ याचनीय है।
यजुरुन्नो भवतीति वा-अथवा यजुर्मन्त्रों से सम्पन्न होता है, अतः इसे यज्ञ कहते हैं।
यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु ( धतुपाठ भूवादिगण- 728 )इत्यस्माद्धतोः यजयाचेति ( अष्टाध्यायी- 3.3.90 )सूत्रोण नघि प्रत्यये यज्ञशब्दो निष्पद्यते अर्थात् देवपूजा, संगतिकरण और दानात्मक धतु ‘यज्’ से नड्. प्रत्यय पूर्वक ‘यज्ञ’ शब्द सिद्ध होता है। इस कथन पर शतपथ ब्राह्मण भाष्यकार बुद्धदेव विद्यालंकार ने व्युत्पत्तियुत्तफ परिभाषा दी है- सामुदायिक योगक्याषेममुदिश्य समुदयादंग्त्य क्रियमाणं कर्म यज्ञ:- समुदाय का अंग बन कर समुदाय के योगक्षेम के लिये जो कार्य किये जाते हैं, वे यज्ञ कहलाते हैं। ( वेद का राष्ट्रीय गीत, प्रियव्रत वेदवाचस्पति, पृष्ठ- 41 )
अमरकोष के टीकाकार ने यज्ञ शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ किया है इज्यते असौ अनेन यत्रा वा- जो यजन किया जाये, जिसके द्वारा अथवा जहां यजन हो वही यज्ञ है। ( अमरकोष- 2.7.13 रामाश्रमी टीका, पृष्ठ- 329 )
यज्ञ-मीमांसाकार ने यज्ञ की विभिन्न निरुत्तिफयां की हैं। यथा-
इज्यन्ते (पूज्यन्ते) देवा अनेनेति यज्ञः। जिससे देवगण पूजे जाते हैं, वह यज्ञ है।
इज्यन्ते सम्पूजिताः तृप्तिमासाद्यन्ते देवा अत्रोति यज्ञः। जिस कार्य में देवगण पूजित होकर तृप्त हो, उसे यज्ञ कहते हैं।
येन सदनुष्ठानेन इन्द्रप्रभृतयो देवाः सुपर्सन्ना सुवृष्टिं कुर्युस्तद् यज्ञपदाभिध्यम्। जिस उत्तम अनुष्ठान से सूर्यादि देवगण अनुकूल वृष्टि करें, उसे
यज्ञ कहते हैं।
येन सदनुष्ठानेन स्वर्गादिप्राप्तिः सुलभा स्यात् तद् यज्ञपदाभिधेयम्। जिस श्रेष्ठ अनुष्ठान से सुखविशिष्ट की प्राप्ति सहज हो जाये,
वह यज्ञ है।
येन सदनुष्ठानेन सम्पूर्ण विश्वं कल्याणं भवेदाध्यात्मिकाध्-ि दैविकाध्भिौतिकतापत्रायोन्मूलनं सुकरं स्यात् तत् यज्ञपदाभिध्यम्। जिस सदनुष्ठान से सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो, आध्यात्मिक, आध्दिैविक, आध्भिौतिक तीनों तापों का उन्मूलन सरल हो जाये, उसे यज्ञ कहते हैं।
वेदमन्त्रौर्देवतामुदिश्य द्रव्यस्य दानं यागः। वेदमन्त्रों के द्वारा देवताओं को लक्ष्य कर द्रव्य का दान याग ;यज्ञद्ध है। ( यज्ञ मीमांसा, पं. वेणीराम शर्मा गौड़, पृष्ठ- 8 )
हिंदी विश्वकोष में संस्कृत ‘यज्ञ’ शब्द की निरुत्तिफ दी गई है-
‘इज्यते हविर्दीयतेत्रा इज्यन्ते देवता अत्रा इति वा यागः’ जिसमें सभी देवताओं का पूजन हो अथवा घृतादि के द्वारा हवन हो, वह यज्ञ है। ( हिन्दी विश्वकोश, नागेन्द्रनाथ भाग- 18, पृष्ठ- 444 )
वेनः
निरुत्तफ के टीकाकार देवराज यज्वा ने ‘वेन’ शब्द की निरुत्तिफ की है-
गच्छत्यनेन स्वर्गम्- इससे यजमान स्वर्ग को प्राप्त करता है।
प्रक्षिप्यते देवतोद्देशेन वास्मिन् हव्यम्– इसमें देवता के उद्देश्य से हवि दी जाती है।
तेनात्रा देवता काम्यन्ते वा– उस हवि से देवगण यहाँ बुलाये जाते हैं। ( निघण्टु- 3.17.2, देवराजयज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 349 )
अध्वरः
संहिता तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञ के ‘अध्वर’ नाम होने के अनेक कारण उल्लिखित हैं। यथा-
अध्वर्तव्या वा इमे देवाअभुव्न्नीति तदध्वरस्याध्वरत्वम्।। ( तैत्तिरीय संहिता- 3.2.2.3 ) सभी देवगण यज्ञ के नायक होते हैं, इसलिये अध्वर का अध्वरत्व है।
तेsसूरा अपक्रांतब्रूवन्न वा इमे ध्वर्तवा अभवन्निती तदस्याध्वरत्वम्। ( कपिष्ठलकठसंहिता- 36.4 ) वे असुर जाते हुए बोले कि यह यज्ञ हिंसित नहीं किये जा सकते यही यज्ञ का अध्वरत्व है।
देवान्ह वै यज्ञेन यजमानान्सपत्ना असुरा दुध्र्षाचक्रुः ते दुध्र्षन्त एव न शेकुधवितं ते पराबभूवुस्तस्माद्यज्ञो{ध्वरो नाम।। ( शतपथ ब्राह्मण- 1.4.1.40, 1.2.4.5 ) असुर लोग देवताओं और यजमानों की हिंसा करना चाहते थे, किन्तु वे उसमें सपफल नहीं हुए अपितु हार गये इसलिये यज्ञ का नाम ‘अध्वर’ हुआ है।
अध्वरो वै यज्ञः। ( शतपथ ब्राह्मण- 1.2.4.5 ) यज्ञो वा अध्वरः। ( तैत्तिरीय आरण्यक- 5.2.60 ) अध्वर ही यज्ञ है। यज्ञ ही अध्वर है।
आचार्य यास्क ने यज्ञ के पर्याय ‘अध्वर’ शब्द का निरुत्ति पूर्वक अर्थ दर्शाया है कि ‘‘अध्वर इति यज्ञनाम। ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध्ः।’’– अध्वर यज्ञ का नाम है। ध्वर, धतु हिंसार्थक है, वह जिसमें न हो वह यज्ञ ‘अध्वर’ कहलाता है। ( निरुत्तफम्- 1.3.8 )
अमरकोष टीकाकार की निरुत्तिफ है- ‘‘न ध्वरति अध्वानं राति वा’’ जो कुटिलता रहित है या जो मार्ग प्रदान करता है, वह अध्वर है। ( अमरकोष- 2.7.13, रामाश्रमी टीका, पृष्ठ- 329 )
ऋग्वेदभाष्य में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अध्वर का पदार्थ लिखा है- ‘हिंसा आदि दोषरहित। ( ऋग्वेद- 1.1.4 भाषाभाष्य )’
मेध्ः
निघण्टु- टीकायुत्तफ व्युत्पत्ति पूर्वक अर्थ है-
गच्छन्त्यत्रा देवता हविर्ग्रहीतुम्– जहाँ देवगण हवि ग्रहण करने के लिये जाते हैं।
दक्षिणार्थं वा सदस्यात्- जहाँ यजमान से दक्षिणा पाने विद्वद्गण जाते हैं।
हिनस्त्यनेन पापं वा- इससे पाप को विनष्ट किया जाता है। ( निघण्टु- 3.17.5, देवराज यज्वाकृत टीका, प्रथम भाग, पृष्ठ- 350 )
आचार्य सायण ने मेध्र संगमे धतु से बने मेध् शब्द का अर्थ निरुत्तिफपूर्वक दिया है- मेध्यते देवैः संगम्यते इति मेध्ं हविः– देवों के द्वारा जो हवि ग्रहण की जाती है, वह यज्ञ मेध् है। मेध्ं हविर्यज्ञसम्बद्धम मेध्, हवि यज्ञ से संबद्द( है। ( ऋग्वेद- 1.3.9 )
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘मेध्’ शब्द का पदार्थ लिखा है-
‘ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ। ( ऋग्वेद- 1.3.9 ) ’ यजुर्वेद में उन्होंने मेध् का अर्थ- ‘पवित्रम्’ किया है। ( यजुर्वेद भाषाभाष्य- 25.33 )
विदथः
धात्वर्थ के अनुसार निरुक्त के टीकाकार की निरुक्ति है-
ज्ञायते हि यज्ञः- यज्ञ ही जानने योग्य है।
लभते हि दक्षिणादिरत्र- यहाँ दक्षिणा आदि प्राप्त की जाती है।
विचार्यते हि विद्वद्भिः- विद्वानों के द्वारा चिन्तन करने योग्य है।
भावयत्यनेन फलम्- इससे फल की प्राप्ति होती है।( निघण्टु- 3.17.5. देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ 350 )
नार्यः
‘नृ नये’ धतु से बने ‘नार्य’ शब्द का निरुक्ति पूर्वक अर्थ है-
नयति स्वर्गं कर्तारम्- जो यज्ञ करने वाले को विशिष्ट सुख प्राप्त कराता है।
नीयतेयमनुष्ठानेन वा ( निघण्टु- 3.17.6. देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ 350 ) – यह अनुष्ठान से आगे बढ़ाया जाता है।
सवनम्
सायणाचार्य ने इसकी निम्न निरुक्ति की है-
सूयते सोमो एष्विति- जिसमें सोम टपकाया जाता है वह यज्ञ, ‘सवन’ है। ( ऋग्वेद- 1.16.8 ) जिसमें वेद मन्त्र गाये जाते हैं। ( निघण्टु- 3.17.7 देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ-350 )
होत्रा
यास्काचार्य ने होत्रा का भाष्य होतकर्म लिखा है, जिसका अर्थ है- यज्ञ।
देवराज यज्वा ने निघण्टु की टीका में दीयतेस्मिन् हविः जिसमे हवि दी जाती है वह यज्ञ, होत्रा है। ( निरुक्तम्- 2.3.12 ) आचार्य वैद्यनाथ शास्त्राी ने वर्षारूपी यज्ञ अर्थ किया है। ( ऋग्वेद- 10.98.7 )
स्वामी दयानन्दकृत अर्थ है- ‘जिसमें सब सुखो को सिद्ध करते हैं।’ जिसमे हवि दी जाती है वह यज्ञ, होत्रा है।
निघण्टु के टीकाकार कृत् अर्थ- अभिपूयतेsस्मिन् स्तोमः।
इष्टिः
ब्राह्मण ग्रन्थ में इष्टि के इष्टित्व पर प्रकाश डालते हुए उसे ऐश्वर्यप्राप्ति (इन्द्रत्व) का साधन कहा गया है। यथा- तम् (इन्द्रं देवा) इष्टिभिरन्विच्छन् तमिष्टिभिरन्वविन्दन् तदिष्टीनामिष्टिन्वम्।।( ऋग्वेद- 10.98.7 )
देवताओं ने उस इन्द्र को इष्टियों के द्वारा पाने की इच्छा से यज्ञों के द्वारा पा लिया यही इष्टियों का इष्टित्व है।
सायणभाष्य में इष्टये यजतेर्भावे क्तिनि सम्प्रसारणम् धतु-प्रत्यय से बने इष्टि शब्द की निरुक्ति दी गई है इष्टयः एष्टव्या भोगाः
सर्वपफलसाध्का यागा वा सन्ति– समस्त भोग्य फलों को सिद्ध करने वाला यज्ञ इष्टि है। ( ऋग्वेद- 1.145.1 सायणभाष्य )
निघण्टु-टीकाकार कृत निरुक्ति – यजतेर्यज्ञवदर्थः– यज्ञ के समान यजन किया जाता है अथवा इष्यते हि सः– वह कामना करने योग्य है।( निघण्टु- 3.17.9, देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 351 )
देवताता
ऋग्वेद के अग्निसूत्तफ में स्पष्टतया ‘देवताता’ शब्द से ‘यज्ञ’ लक्षित है। यथा- आ देवताता हविषा विवासति।। ( ऋग्वेद- 1.58.1 )
आचार्य सायण ने धतु-प्रत्यय पूर्वक चिन्तन प्रस्तुत किया है कि
पाणिनिसूत्रा सर्व देवात्तातिल् इति स्वार्थिकः से देवताता शब्द सिद्ध होता है, देवताता इति यज्ञनाम– देवताता यह यज्ञ का नाम है क्योंकि
यज्ञ में चरूपुरोडाश आदि आहुति से देवों की सेवा की जाती है।
अन्यत्रा उन्होंने कई प्रकार की निरुत्तियां दी हैं-
देवेन तता देवताता– देवता के द्वारा विस्तारित यज्ञ, देवताता है।
देवनशीलनाग्निना विस्तारिता दीप्तिः- देवनशील अग्नि के द्वारा विस्तारित आभा, देवताता है।
विस्तारयुत्तफाय यागाय- देवों के विस्तारयुत्तफ यज्ञ के लिये यजमानअग्नि की सेवा करते हैं उसे देवताता कहते हैं। ( ऋग्वेद- 1.34.5, 1.95.8, 1.127.9 )
निघण्टु- टीकाकार की निरुत्तिफ है- दीव्यन्ति स्तुवन्त्यत्रा देवताः- जहां देवताओं की स्तुति की जाती है वह यज्ञ, देवताता है। ( निघण्टु- 3.17.10, देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 351 )
मखः
संहिता ग्रन्थों के अनुसार यज्ञो वै मखः– यज्ञ ही मख है। ( तैत्तिरीय संहिता- 3.2.4.1 )
मख इति एतद्यज्ञनामधयेम, छिद्रप्रतिषध्सामर्थ्यात, छिद्र खमित्युत्तफं- तस्य मेति प्रतिषेध्ः। मा यज्ञं छिद्रं करिष्यतीति।। ( गोपथ ब्राह्मण- 2.2.5 )
मख यह यज्ञ का नाम है क्योंकि मख दोषनिवारक है अथवा छिद्ररहित (निर्दोष) है। छिद्र को खम् कहते हैं उसका प्रतिषेध् मख
कहलाता है। यज्ञ को दूषित नहीं किया जाना चाहिए।
ऋग्वेद में पठित मख शब्द पर आचार्य सायण ने अपने भाष्य में लिखा है- मखः प्रवर्तमानोsयं यज्ञः- किया जा रहा यह यज्ञ।
अयं यज्ञो मरुत इन्द्रं चातिशयेन प्रणीयतीत्यर्थः- यह यज्ञ वायु और सूर्य आदि को उत्कृष्टतया प्रसन्न करता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘मख’ का पदार्थ दिया है- ‘सुख और पालन होने के हेतु यज्ञ।’ उन्होंने चिन्तन पूर्वक मख को शुद्धिकारक कहा है। यथा-
जो शुद्ध अतिउत्तम पदार्थों से अग्नि में किये हुए होम से सिद्ध किया हुआ यज्ञ है, वह वायु और सूर्य की किरणों की शुद्धि के द्वारा रोगनाश करने के हेतु से सब जीवों को सुख देकर बलवान् करता है। ( ऋग्वेद- 1.6.8 )
निघण्टु के टीकाकार ने मह पूजायाम् धातु मानकर इसकी निरुक्ति की है- महन्त्यत्र देवताः- यहाँ देवता पूजे जाते हैं। ( निघण्टु- 3.17.11 देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 351 )
अमरकोष के व्याख्याकार ने मख गतौ धतु से बने मख शब्द की निरुक्ति की है- मखन्ति देवा अत्र अनेन वा- देवता जहां जाते हैं अथवा जिससे गतिशील होते हैं वह मख ‘यज्ञ’ है। ( अमरकोष- रामाश्रमी व्याख्या, पृष्ठ- 329 )
हिन्दी विश्वकोष में भी यही निरुक्ति दी गई है। (हिन्दी विश्वकोश, नागेन्द्रनाथ- पृष्ठ- 425, भाग- 16 )
विष्णुः
संहिता तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञ को ‘विष्णु’ कहा गया है। यज्ञो विष्णुः, विष्णुर्यज्ञः, यज्ञो वै विष्णुः।। ( मैत्रायणी संहिता- 1.6.8, तैत्तिरीय संहिता- 2.3.11.2, ऐतरेयब्राह्मण- 1.15, शतपथ ब्राह्मण- 1.9.3.9, गोपथ ब्राह्मण- 2.6.7, ताण्ड्य महाब्रा.- 13.3..2 )
विशेषेणाप्नोति स्वर्गं- जिसके द्वारा सुख विशेष की प्राप्ति हो, वह यज्ञ विष्णु है। ( निघण्टु- 3.17.12, 13, देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 351 )
इन्दुः
उन्दी क्लेदने धातु से निर्मित इन्दु शब्द का व्युत्पत्ति पूर्वक अर्थ है- क्लिद्यते सूयतेsस्मिन् सोमः- जिसमें सोम टपकाया जाता है वह यज्ञ इन्दु है। ( निघण्टु- 3.17.13, देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 351 )
भाषाभाष्यकार ने इन्दु शब्द का अर्थ जलक्रियामय यज्ञ किया है। ( ऋग्वेद- 1.2.4 )
प्रजापतिः
अनेकार्थवाची शब्द प्रजापति, यज्ञ का भी नाम है। संहिता एवं ब्राह्मण-ग्रन्थों में उल्लिखित है- यज्ञ उ वै प्रजापतिः। ( तैत्तिरीय संहिता- 3.2.3.3, काठक संहिता- 22.1 )
यज्ञो वै प्रजापतिः ( मैत्रायणी संहिता- 3.9.6 ) ; एष वै प्रत्यक्षं यज्ञो यत्प्रजापतिः।। ( शतपथ ब्राह्मण- 4.3.4.3 )यह यज्ञ ही ‘प्रजापति’ है।
निघण्टु- व्याख्याकार ने प्रजापति शब्द को- ‘वृष्ट्यादि हेतुत्वात्- वृष्टि का हेतु’ लिखकर यज्ञपरक माना है। ( निघण्टु- 3.17.14, देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 352 )
भाषाभाष्यकार ने ‘प्रजा का पालक- अग्नि अर्थ किया है। ( ऋग्वेद- 10.85.43 )
घर्मः
काठक संहिता में अग्निहोत्र को घर्म कहा गया है। यथा- घर्मो व एष प्रवृज्यते यदग्निहोत्रम्। ( काठक संहिता- 6.3 )
ऋग्वेद में आये घर्म शब्द का अर्थ यज्ञ करते हुए आचार्य सायण ने लिखा है क्रव्यादात्परोग्निर उत्कृष्ट सहस्थाने यज्ञ प्राप्नोतु- मृत शरीर को जलाने वाली क्रव्याद- अग्नि से भिन्न गृह में स्थापित अग्नि विस्तृत यज्ञ गृह में यज्ञ को प्राप्त करें। ( ऋग्वेद- 10.16.10 )
निघण्टु टीका में क्षरत्यस्मिन् सोमः दीप्यतेsत्राग्नयः वा- जिसमें सोम की आहुति दी जाती है अथवा जहाँ अग्नियां प्रज्वलित होती हैं वह
यज्ञ ‘घर्म’ उल्लिखित है। ( निघण्टु- 3.17.15, देवराज यज्वाकृत टीका, पृष्ठ- 352 )
सवः
सूयते सोमोsत्र- जहां सोम का अभिषव किया जाता है वह ‘सव’ है।
यागः
इज्यते अनेन वा यत्र वा-जहाँ या जिससे पूजन कर्म हो वह ‘याग’ है।
सप्ततन्तुः
सप्तभिस्छन्दोभिरग्निर्जिहवाभिर्वा तन्यते यद्वा तानि सप्त तन्यन्तेsत्र- सात छन्दों के द्वारा अथवा अग्नि की सात ज्वालाओं के द्वारा विस्तारित यज्ञ ‘सप्ततन्तु’ है या जहां वे सातों विस्तृत हों। ( अमरकोष- रामाश्रमी व्याख्योपेत, पृष्ठ- 329 )
क्रतुः
करोति क्रियते वा- जो किया या कराया जाता है वह यज्ञ क्रतु है। ( अमरकोष- रामाश्रमी व्याख्योपेत, पृष्ठ- 329 )