वैदिक यज्ञ सूक्तियाँ
शतायुषा हविषाहार्षमेनम्।। -अथर्व.
3.11.4
यज्ञ तुझे सौ वर्ष तक आयुष्य देवें।
पृथवी च मे यज्ञेन कल्पताम्। -यजु.
18.13.18
पृथिवी को यज्ञ के द्वारा समर्थ बनाये।
पृथिवीं भस्म स्वाहेति। -मैत्रा. सं.
3.9.4
पृथिवी को भस्म से आपूरित करें।
कृषिश्च मे यज्ञेन कल्पताम्। -यजु 18.9
हमारी
कृषि यज्ञ के द्वारा सामथ्र्यशाली होवें।
‘वृष्टिश्च मे यज्ञेन कल्पताम्। -यजु.
18.9
वृष्टि यज्ञ के द्वारा सामथ्र्यशाली होवें।
हविर्धनं अग्निशालं। -अथर्व.
9.3.1.7.11
प्रत्येक घर में होम करने का स्थान एवं यज्ञीय पदार्थ रखने का
स्थान होना चाहिये।
यज्ञो मे आयुर्दधतु। -का.सं. 5.3
यज्ञ मुझे
आयु धरण कराये।
यज्ञो वै सुतर्मा नौः। -ऐत.ब्रा.-1.13
यज्ञ ही
सुखविस्तारक नौका है।
स्वर्गो वै लोको यज्ञः। -कौ.ब्रा.-14.1
यज्ञ
ही स्वर्ग लोक है।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। -गीता
3.12
यज्ञ द्वारा बढ़ाये हुए देवतागण इष्ट-कामनाओं को पूर्ण करते हैं।
मुखं वा एतद्यज्ञानां यदग्निहोत्राम्।।
-शत.ब्रा.-14.3.1.29
यह अग्निहोत्रा यज्ञों का मुंह है।
घृतस्य धरा अभिचाकशीमि।। -यजु.-17.93
इस यज्ञ
में अन्न आदि पदार्थों के साथ घी की धरा बहायें।
सर्वदेवत्यं वै घृतम्। -कौ.ब्रा.-21.4
घी सभी
देवताओं का पोषक है।
इदं हविर्यातुधनान् नदी फैनमिवावहत्।। -अथर्व.
1.8.2
यज्ञ मे होमीगई हवि रोग एवं प्रदूषण रूपी यातुधनों को वैसे ही विनष्ट
कर देती है जैसे नदी, झागों को।
दूर्वा व्याधिविनाशय होमयेत्।।
-अग्नि.-81.51
सर्व व्याधि नाशार्थ दूर्वा (दूब) का हवन करना चाहिये।
मृत्यु×जयो मृत्युजित् स्याद् वृद्धिः स्यात्तिलहोमतः।।
-अग्नि.-81.51
तिल के द्वारा हवन करने से मानव मृत्यु पर विजय प्राप्त कर
सकता है।
होतृषदनं हरितं हिरण्ययम्
-अथर्व.-7.99.1
यज्ञकर्ता का घर सभी प्रकार के ऐश्वर्यों से भर जाता है।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
-गीता-3.12
यज्ञ से तृप्त देवगण यजमान की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं।
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
-गीता-3.13
यज्ञ शेष अन्न को खाने वाले यजमान पापों से मुक्त हो जाते हैं।
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
-गीता-4.31
यज्ञ से बचे अमृत को खाने वाले यजमान परमात्मा को प्राप्त होते
हैं।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।
-गीता-18.5
यज्ञ दान व तप ये कर्म मनुष्यों को पवित्र करने वाले हैं।
यज्ञस्य प्राविता भव। -ऋ.-3.21.3
तू यज्ञ का
रक्षक बन।
अग्निर्म दुरिष्टात् पातु, अग्निः खलु वै रक्षोहा।।
-तैत्ति. सं. 1.3.6.1.6.1.4.6
अग्नि दोषों से छुड़ाने वाला तथा रोगाणुओं का
संहार करने वाला है।
अग्निरू सर्वेषां पाप्मनामपहन्ता। -शत.ब्रा.
7.3.2.16
अग्नि समस्त दोषो का विनाशक है।
अग्निर्वै धूमो जायते, धूमाद् अभ्रम्, अभ्राद् वृष्टिः।
-श.ब्रा. 5.3.5.1.7
अग्नि से धुआं उत्पन्न होता है धुएं से मेघ तथा मेघ से
वृष्टि की उत्पत्ति होती है।
अग्निर्हविः शमिता सूदयाति।। -ऋ.-7.2.10
अग्नि हवन
किये द्रव्य को छिन्न-भिन्न करती है।
अग्निर्दिवि हव्यमाततान…।। -ऋ.-10.80.4
यह
अग्नि ही हव्यद्रव्यों को द्युलोक में फैलाती है।
वसोः पवित्रमसि। -यजु.-1.2
यज्ञ शुद्धि का
हेतु है।
यज्ञो वा आयुः। -ता.महाब्रा. 6.4.4.
यज्ञ ही
जीवन है।
ईजानाः स्वर्गं यान्ति लोकम्।
-अथर्व.-18.9.2
यज्ञ करने वाले सुखमय लोक को पाते है।
तस्मादपत्नीकोऽप्यग्निहोत्रमाहरेत्।। -ऐत.ब्रा.,
7.9
पत्नी के बिना भी अकेले अग्निहोत्र करे।
यज्ञं मधुना मिमिक्षतम्। -ऋ.-1.34.3
शहद से
यज्ञ को सींचे।
होमं समारभेत् सर्पिर्यवब्रीहितिलादिना।
-यज्ञमीमांसा
तिल, जौ, चावल और घृत से हवन करे।
सप्त ते अग्ने समिधा। -यजु. 17.79
यज्ञ के
लिये सात (पीपल, पलास आदि) समिधाओं का प्रयोग करें।
अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। -ऋग्. 1.164.34
यह
यज्ञ भुवन का केन्द्र है।
गृहं गृहमुपतिष्ठाते अग्निः। -ऋग्.
1.124.11
घर-घर में यज्ञाग्नि पहुँचे।
सहस्रंभरः शुचिजिह्नो अग्निः। -ऋग्.
2.9.1
पवित्र ज्वाला वाली यज्ञाग्नि हजारों लाभ पहुँचाता है।
यज्ञेन गातुमप्तुरो विविद्रिरे। -ऋग्.
2.21.5
कर्मपरायण लोग यज्ञ से सन्मार्ग की दिशा पाते हैं।
विप्रो यज्ञस्य साधनः। -ऋग्.3.27.8
बुद्धिमान्
मनुष्य यज्ञ का साधक होता है।
निषीद होत्रमृतुथा यजस्व। -ऋग्. 10.98.4
यज्ञ
में बैठ ऋतु के अनुकूल यज्ञ कर।
ऊध्र्वोऽध्वर आस्थात्। -यजु. 2.8
यज्ञ सबसे
ऊपर स्थित कर्म है।
मेधायै मनसेऽग्नये स्वाहा। -यजु. 4.7
मेधा और
मनोबल पाने के लिए हम अग्नि में आहुति देते हैं।
स्वर्यन्तु यजमानाः स्वस्ति। -यजु.
17.39
यजमान लोग स्वस्ति तथा मोक्ष प्राप्त करें।
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना। -यजु.
20.25
वह देश पुण्यवान् है जहाँ विद्वान् जन अग्निहोत्र करते हैं।
समिद्धो अग्निः सुपुना पुनाति। -अथर्व.
12.2.11
प्रज्वलित यज्ञाग्नि अपनी सुपावकता से वायुमण्डल को पवित्रा करती
है।
मन्त्रो गुरुः पुनरस्तु। -ऋ. 1.147.4
मन्त्र
ही सर्वत्र गुरु है।
दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते। -ऋ.
1.124.6
दक्षिणा देने वाले मोक्षसुख पाते हैं।