यज्ञ श्लोगन

यज्ञ की यह शुद्ध हवा।
सब रोगों की है दवा।।1।।

जो तुम चाहते हो रोगों से छुटकारा।
तो लो नियमित यज्ञ का सहारा।।2।।

यही हमारी संस्कृति, यही हमारी पहचान।
आओ करें मिल यज्ञ सब, हो ऋषिराष्ट्र सम्मान।।3।।

जब होगा योग-यज्ञ और ध्यान।
तभी बनेगा यह भारत महान्।।4।।

हो संकल्प योग यज्ञ का रहे न दुःख से मारा।
हो समृद्ध तन-मन-धन से ऐसा हो भारत हमारा ।।5।।

न होता प्रदूषण और रोगों का वार।
करते यदि यज्ञपेड़-पौधों का विस्तार।।6।।

भवन बन रहे हैं, पतन हो रहा है।
वो धरा-जमीं पावन है, जहां हवन हो रहा है।।8।।

नित्य यज्ञाग्नि का आधान जहां
धरती का है स्वर्ग वहां।।9।।

विश्व शांति का एक नारा।
यज्ञ से होगा जग उजियारा।।10।।

बिन बाती न दीप जले, होवे न देहली उजियारा।।
ऐसे ही बिन योग-यज्ञ के, होवे न दुःख छुटकारा।।11।।

न करो पशु-पक्षी और प्रकृति की हानि।
जियो और जीने दो यही यज्ञ की वाणी।।12।।

यज्ञ करना टाइम वेस्ट नहीं।
अपितु टाइम बेस्ट है।।13।।

दमा-खांसी-कोरोना-कैंसर, रोग हो रहें हैं रोज।
योग कर तू हवन रचा, स्वस्थ काया बढ़ेगा ओज।।14।।

वेदों में बताया यह विधान।
यज्ञ से होगा रोग निदान।।15।।

यज्ञ की यह शुद्ध राख।
अनेक रोगों में है खुराक।।16।।

प्रकृति हमारी जननी है।
यज्ञ से रक्षा करनी है।।17।।

पंच यज्ञों में जो है श्रेष्ठ, होता है जिससे सब रोग नष्ट।
सकल जग के प्राणमय भैषज्य, महर्षि कहते जिसे देवयज्ञ।।18।।

स्वाहा है जिसकी आत्मा, इदन्न मम है जिसका प्राण।
ऐसे दिव्य वचनों से, बढ़ती है यज्ञ की शान।19।।

आहार-विहार-विचार और, शुद्ध होता है नित व्यवहार।
ऐसे देवों में देवयज्ञ का, आओं मिलकर करें विस्तार।।20।।

न खर्चे का डर न वक्त का फेर।
तो यज्ञ करने में क्यूं करता है देर।।21।।

अनेकता में एकता की पहचान। यह यज्ञ-अभियान।।22।।

यज्ञ-वृक्ष की जब करोगे रक्षा।
तब ही बनेगा जीवन अच्छा।23।।

न करो और प्रदूषण करने की भूल।
यज्ञ से जुड़े यह है संस्कृति का मूल।।24।।

यज्ञ है हमारी भारतीय संस्कृति।
स्वार्थ साधना में न करे विस्मृति।।25।।

बंजर धरती की यही पुकार।
यज्ञ करके करो श्रृंगार।।26।।

सुगंध-मिष्ठ-पुष्टिवर्धक, है रोगनाशक चार जिसमें हवि।
ऐसे दिव्य तेज पुंज को, कहते अग्निहोत्र जिसे कवि।।27।।

जब तक भारत का नाम रहेगा।
यज्ञ-मंत्रों का गुणगान रहेगा।।28।।

लो हवन में श्वास गहरा।
सुखमय जीवन हो सुनहरा।।29।।

सब लोगों की यही पुकार।
यज्ञमय हो सारा संसार।।30।।

योग-यज्ञ से मिलती है विमल मति।
न करो भेदभाव न अभिमान अति।।31।।

यज्ञ हमारी परम्परा, भूल गयें है आज।
करे और कराये इसे, है रोगों का इलाज।।32।।

करो यज्ञ की तैयारी।
नहीं तो और फैलेगी महामारी।।33।।

है कलुषित जल-वायु भी, थी कभी जीवन-दायिनी।
रक्षक ही बन बैठा भक्षक, नहीं किसी की है मानी।।
अभी समय है संभल जाओ, ज्यादा न हुई कोई हानि।
यज्ञ करो पेड़ लगाओ, यही वेदऋषि की वाणी।।34।।

होतें यज्ञ और वृक्ष जहां।
रहतें स्वस्थ सब है वहां।।35।।

कर रहे रोग जीवन का हरण।
आओ लें हम यज्ञ की शरण।।36।।